________________
82 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
सकता है।
तम्हा उवउत्तेणं, पडिलेहपमज्जणासु जइयव्वं । इह दोसेसु गुणेसु वि, आहरणं सोमिल ऽज्जमुणी।। 188 ।।
तस्मात् उपयुक्तेण, प्रतिलेखप्रमार्जनासु यतितव्यं । इह दोषेषु गुणेषु अपि उदाहरणं सोमिलार्यमुनिः।। 188 ।। अतएव प्रतिलेखन व प्रमार्जना की व्यवस्था का परिपालन अवश्य करना चाहिये। इन दोनों के परिपालन करने पर या नहीं करने पर दोष व गुण प्राप्ति के लिये दो उदाहरण समक्ष रखे सोमिलका व आर्य मुनि का।
आवायाइविरहिए, देसे संपेहणाइपरिसुद्धे । उच्चाराइ कुणंतो, पंचमसमिइं समाणेइ।। 189 ।। .. आपातादिविरहिते, देशे संप्रेक्षणादि परिशुद्धे ।
उच्चारादि कुर्वन्तः पंचमीसमितिं समानयंति।। 189 ।। तिर्यंच एवं मानव के आवागमन से रहित एवं प्रतिलेखन तथा प्रमार्जन द्वारा विशुद्ध किये गये स्थान पर श्लेष्म, मल, मूत्र अनेषणीय एवं अतिरिक्त भक्त पानादि का परिस्थापन करना पांचवीं प्रतिस्थापना समिति कही जाती है।
धम्मरुइमाइणो इह, आहरणं साहुणो गयपमाया। जेहिं विसमावइसु, वि मणसा वि न लंघिया एसा।। 190 ।।
धर्मरूचि आदयः इह, उदाहरणं साधवः गतप्रमादाः ।
यैः विषमापत्स्वपि मनसा न विलयिता एषा।। 190 ।। इसके पालन का साक्षात् उदाहरण है - धर्म रूचि आदि मुनियों ने प्रमाद रहित होकर विषम परिस्थिति के आने पर भी मन से भी इस पांचवीं समिति का अतिक्रमण नहीं किया।
अकुसलमणोनिरोहो, सुसलस्स उईरणं तहेगत्तं। इय निट्ठियमणपसरा, मणगुत्तिं बिति महरिसणो।। 191।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org