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________________ उपदेश पुष्पमाला / 81 यः यथा वा तथा वा लब्धं गृह्णाति आहारोपधिआदिकं । श्रमणगुणविप्रमुक्तः, संसार प्रवर्धकः भणितः ।। 184 ।। जो श्रमण उद्गम आदि दोषों से दूषित आहार, उपधि आदि को ग्रहण करता है वह श्रमण गुणों से रहित होकर संसार की वृद्धि को प्राप्त होता है, ऐसा कहा गया है । " धणसम्म – धम्मरुइ-माइयाण साहूण ताण पणओऽहं । कंठद्वियजीएहि वि, न एसणा पिल्लिया जेहिं ।। 185 ।। धनशर्म-धर्मरूचि आदिकान् साधून् तान् प्रणतोऽहं । कण्ठस्थितजीवैः अपि न एषणा पीड़िता यैः ।। 185 ।। धनशर्मा एवं धर्मरूचि आदि श्रमण को मैं नमन करता हूँ, जिन्होंने मृत्यु को सन्मुख जानकर भी एषणा - समिति का अतिक्रमण ( उल्लंघन ) नहीं किया । पडिलेहिऊण सम्मं, सम्मं च पमज्जिऊण वत्थूणि । गिण्हेज्ज निक्खिवेज्ज व समिओ आयाणसमिइए । । 186 || प्रत्युपेक्ष्य सम्यक्, सम्यक् च प्रमृज्य बस्तूनि । गृहीयात् निक्षिपेत् वा, समितः आदानसमित्या ।। 186 ।। जो श्रमण भलिभांति अवलोकन कर रजोहरण आदि से वस्तुओं का प्रमार्जन करके उन्हें ग्रहण करता है या उनका निक्षेप करता है वही श्रमण आदान-निक्षेपण समिति से युक्त है । जइ घोरतवच्चरण, असक्कणिज्जं न कीरए इहि । किं सक्का वि न कीरइ ?, जयणा सुपमज्जणाइया ।। 187 ।। यदि घोरतपश्चरणं अशक्यं नित्यं न क्रियते इदानीम् । किं शक्योऽपि न करोति ? यतना सुप्रमार्जनादिका ।। 187 ।। जो श्रमण तपस्या करने में अशक्त है, असमर्थ है तो भी क्या ऐसा श्रमण सम्यक् प्रमार्जना आदि की क्रियाएँ भी नहीं कर सकता है ? अर्थात् कर Jain Education International · For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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