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80 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
जिणसासणस्स मूलं, भिक्खायरिया जिणेहिं पण्णत्ता। एत्थ परितप्पमाणं, तं जाणसु मंदसद्धीयं ।। 181।।
जिनशासनस्य मूलं, भिक्षाचर्या जिनैः प्रज्ञप्ता। अस्यां परितप्यमानं, तं जनीहि मन्दश्रद्धाकं ।। 181 ।। उद्गम आदि दोषों से रहित भिक्षाचर्या जिनधर्म का आधार भूत तत्त्व है ऐसा जिनेश्वर परमात्मा द्वारा कहा गया है। इस प्रकार की भिक्षाचर्या से खेदित श्रमण को धर्म के प्रति मन्द श्रद्धा वाला ही समझना चाहिये।
जइ नरवइणो आणं, अकक्कमंता पमायदोसेणं। पावंति बंधवहरोहच्छिज्जमरणावसाणाणि ।। 182 ।।
तह जिणवराण आणं, अइक्कमंता पमायदोसेणं। पावंति दुग्गइपहे, विणिवायसहस्सकोडीओ।। 182 ||
यथा नरपते राज्ञां, अक्रामन्तो प्रमाददोषेण। प्राप्नुवन्ति बन्धवधरोधच्छेदमरणावसानानि।। 183|| तथा जिनवराणां आज्ञां अतिक्रामन्तः प्रमाददोषेण।
प्राप्नवन्ति दुर्गतिपथे विनिपातसहस्रकोटीः।। 183|| जिस प्रकार प्रमादवश भी राजा की आज्ञा का अतिक्रमण करने वाला व्यक्ति रस्सी आदि से बांधा जाता है, लकड़ी आदि से पीटा जाता है, कारागृह में बन्दी बनाया जाता है, उसके शरीर के अवयव छेदे जाते हैं, यहाँ तक कि उसे मृत्यु-दण्ड भी दिया जाता है। उसी प्रकार जिनेन्द्र देव की आज्ञा का अतिक्रमण करने वाला भी सहस्त्र करोड वर्षों तक दुर्गति पथ को प्राप्त होता है।
जो जहव तह व लद्धं, गिण्हइ आहारउवहिमाईयं । समणगुणविप्पमुक्को, ससारपरवड्ढओभणिओ।। 184।।
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