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उपदेश पुष्पमाला/79
पूर्वक भी न बोले। इसी प्रकार सावद्य (हिंसा युक्त वचन) निष्ठुर वचन एवं असम्बद्ध वचन भी न बोले। साथ ही जन समाज के लिये अरे, हे आदि सम्बोधन युक्त भाषा का भी प्रयोग न करें।
न विरुज्झइ लोयठिई, बाहिज्झइ जेण नेय परलोओ। तह निउणं वत्तव्, जह संगयसाहुणा भणियं ।। 178 ।।
न विरूध्यते लोकस्थितिः, बाध्यते येन नैव परलोकः। तथा निपुणं वक्तव्यं, यक्षा संगत-साधुना भणितं ।। 178|| जिन वचनों से लोक स्थिति का विशेष न हो, परलोक भी बाधित न हो, मुनि ऐसी निपुण भाषा का प्रयोग करे जैसी संगत नामक मुनि ने की थी।
आहार उवहि सिज्ज, उग्गमउप्पायणेसणासुद्धं । गिण्हइ अदीणहियओ, जो होइ स एसणासमिओ।। 1791।
आहार उपधि शय्या, उद्गमोत्पादनेषणा शुद्धं । गृहृणाति अदीनहृदयः, यः भवति स एषणासमितो।। 179 || श्रमण द्वारा दीनता रहित होकर उद्गत उत्पादन आदि दोषों से रहित आहार, वस्त्र उपधि एवं उपाश्रय आदि का जो ग्रहण किया जाता है उसे एषणासमिति कहते हैं। - आहारमेत्तकज्जे, सहसच्चिय जो विलंघइ जिणाणं। कह सेसगुणे धरिही? सुदुद्धरं सो जओ भणियं ।। 180 11.
आहारमात्रकार्ये, सहसा एव यः विलङ्घयति जीनाज्ञां। कथं शेषगुणे धरिष्यति ? सुदुर्धरं सः यतो भणितं ।। 180।। जो श्रमण आहार आदि से लिये बार-बार गृहस्थों के घरों में प्रवेश करता है तथा समिति के नियमों का उल्लंघन (अतिक्रमण) करता है वह श्रमण दुर्द्धर ब्रह्मचर्य आदि शेष गुणों का परिपालन कैसे करेगा ? ऐसा जिनेश्वर देव ने कहा है।
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