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________________ 78 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री ऊर्ध्वमुखः कथारक्तः, हसन् शब्दादिषु रज्यन् । स्वाध्यायं चिन्तयन्, रीयेत न चक्रवालरचनं ।। 17411 यति ऊपर मुख करके अर्थात् ऊपर देखते हुए, बात-चीत करते हुए, हँसते हुए, शब्द आदि विषयों में आसक्त होकर स्वाध्याय, या चिन्तन करते हुए चक्रवाल गति से (गोलाकार रूप से) गमन नहीं करे। तह होज्जिरियासमिओ, देहे वि अमुच्छिओ दयापरमो। जह संथुओ सुरेहि, वि वरदत्तमुणी महाभागो।। 175 ।। तथा भवेत् ईर्यासमितो देहेऽपि अमूर्छितः दयापरमः । यथा संस्तुतः सुरैः, अपि वरदत्तमुनिर्महाभागः ।। 175।। महाभाग परम दयालु वरदत्त मुनि अपने शरीर के प्रति भी निष्पृह भाव रखते हुए ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते थे। इन्द्रादि देवों द्वारा प्रशंसित होते हुए भी अगर्वित होकर सजगतापूर्वक विहार करते रहे। कोहाइहिं भएण व, हासेण व जो न भासए भासं। मोहरिविगहाहिं तहा, भासासमिओ स विण्णेओ।। 176 ।। क्रोधादिभिः भयेन वा, हास्येन वा यो न भाषते भाषां। मोखर्यविकथाभ्यां तथा भाषा समितः सः विज्ञेयः।। 176 11. जो साधक क्रोध, भय एवं हास्य वश असत्य भाषण नहीं करता है, जो वाचाल नहीं है एवं विकथा नहीं करता है वह भाषा समिति का विज्ञाता कहलाता है। बहुअं लाघवजणयं, सावज्जं निठुरं असंबद्धं । गारत्थियजणउचियं, भासासमिओ न भासेज्जा।। 177 ।। बहुकं लाधवजनकं, सावद्यं निष्ठुरं असम्बई । ग्रहस्थजनोचितं, भाषा समितो न भाषेत।। 177 ।। भाषा समिति का पालन करने वाला साधक मुनि व्यर्थ में नहीं बोले, हीनता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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