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उपदेश पुष्पमाला / 93
इसलिये शुभ परिणाम ही मोक्ष रूपी साध्य की सिद्धि कर सकते है । यही निश्चय नय का कथन है। जिनेश्वर भगवान् द्वारा व्यवहारनय से ही लिङ्ग ग्रहण (बाह्य वेष ग्रहण) का निर्देश दिया गया है।
जई जिणमयं पवज्जह, ता मा ववहारनिच्छए मुयह । ववहारनउच्छेए, तित्थुच्छेओ जओ भणिओ ।। 224 ।। यदि जिनमतं प्रपद्यध्वं तदा मा व्यवहार निश्चयौ मुंचथ ।
व्यवहार - नयोच्छेदे तीर्थोच्छेदः यतः भणितः ।। 224 ।। यद्यपि जिन मत में साध्य को प्राप्त करने हेतु निश्चयनय का महत्त्वपूर्ण स्थान है । व्यवहारनय का परित्याग नहीं करना चाहिये क्योंकि व्यवहार नय का परित्याग करने पर जिन-अर्चाचैत्यवन्दन, जिनपूजादि सभी कार्य करणीय नहीं रह जायेंगे, जिससे तीर्थोच्छेद की सम्भावना उत्पन्न हो जायेगी ।
ववहारो वि हु बलवं, जं वंदइ केवली वि छउमत्थं ।
आहाकम्मं भुंजइ, सुयववहारं पमाणंतो ।। 225 ।। व्यवहारोऽपि खलु बलवान्, यत् वंदते केवलोऽपि छद्मस्थं । आधाकर्म भुङ्क्ते श्रुतव्यवहार प्रमाणयन् ।। 225 ।। व्यवहारनय भी अपने आप में महत्त्वपूर्ण हैं। यही कारण है कि केवलज्ञानी भी छद्मस्थ गुरु को वन्दन करते हैं। ये छद्मस्थ होने के कारण उनके द्वारा आधा कर्म आहार का सेवन भी हो जाता है। श्रुत व्यवहार की अपेक्षा से वे केवली के द्वारा भी वन्दनीय होते हैं। इससे व्यवहारनय का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है ।
तित्थयरुद्देसेण वि, सिढिलिज्ज न संजमं सुगइमूलं । तित्थयरेण वि जम्हा, समयम्मि इमं विणिद्दिवं || 226 ||
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