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________________ उपदेश पुष्पमाला / 75 वर्जनीय है तो फिर षट् जीव निकाय के हित में रत तथा जिन मत में स्थित जीवों के लिये तो यह विशेष रूप से वर्जनीय है । इहलोयम्मि वि दोसा, रविगुत्तस्स व हवंति निसिभत्ते । परलोए सविसेसा, निद्दिट्ठा जिणवरिंदेहिं ।। 165 || इहलोकेऽपि दोषाः रविगुप्तस्य इव भवन्ति निशिभक्ते । परलोके सविशेषाः, निर्दिष्टा जिनवरेन्द्रैः ।। 165 ।। इस लोक में भी सूर्य के अस्त हो जाने पर रात्रि भोजन से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, तो फिर परलोक के विषय में क्या कहना ? जिनेश्वरों द्वारा भी रात्रि भोजन से नरक की प्राप्तिरूप अनेक विशेष दोषों का निर्देश किया गया है । अलमेत्थ पसंगेणं, रक्खेज्ज महव्वयाइं जत्तेण । अइदुहसमज्जियाई, रयणाइं दरिद्दपुरिसोव्व ।। 166 ।। अलमत्र प्रसङ्गेन रक्षेः (त्व) महाव्रतानि यत्नेन । अतिदुःखसमार्जितानि रत्नानि दरिद्र पुरूष इव ।। 166 || जैसे निर्धन ( दरिद्र ) पुरूष अत्यन्त परिश्रम से अर्जित रत्नादि को बडे यत्न से रक्षा करता है वैसे ही मुनियों को भी इन महाव्रतों रूपी रत्नों का यत्नपूर्वक रक्षण करना चाहिये अर्थात् उनमें कोई दोष नहीं लगाना चाहिये । इस सम्बन्ध में इतना कहना ही पर्याप्त है। ताणं च तत्थुवाओ, पंच य समिईउ तिन्नि गुत्तीओ | जासुसमप्पइ सव्वं, करणिज्जं संजयजणस्स ।। 167 ।। तेषां च तत्रोपायः, पंच च समितयः तिस्रः गुप्तयः । यासु समाप्यते सर्व, करणीयं संयतजनस्य ।। 167 ।। इन महाव्रतों के परिपालनार्थ पांच समिति और तीन गुप्ति रूप सुरक्षा के उपाय है। महाव्रतों की रक्षा के लिये जो भी सारे उपाय बताए गये हैं वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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