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74/ साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
यदि चक्रवर्तिऋद्धिं, लब्धां अपित्यजन्ति केचित् सत्पुरूषाः ।
कः तव असत्सु अपि, धनेषु तुच्छेषु प्रतिबन्धः ।। 161 ।। चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त होने पर भी यदि सत्यपुरूष उसका त्याग कर देते हैं तो फिर परिग्रह से रहित मुनि इस सारहीन तुच्छ धनार्जन के प्रति आग्रह क्यों रखें ? अर्थात् नहीं रखना चाहिये।
वहवेरकलहमूलं, नाऊण परिग्गहं पुरिससीहा। सरीरे वि ममत्तं चयंति चंपाउरिपहुव्व।। 162।।
बधवैर-कलह मूलं, ज्ञात्वा परिग्रहं पुरुषसिंहाः। शरीरेऽपि ममत्वं, त्यजन्ति चम्पापुरीप्रभुरिव।। 162 ।। पुरूषों में सिंह के समान अरिहन्त परमात्मा ने परिग्रह को हिंसा, विद्वेष एवं कलह का मूल बताया है। अतः साधक शरीर के प्रति भी ममत्व का त्याग कर दें, जैसे- चम्पापुरी के राजा कीर्तिचन्द ने किया। __ पच्चक्खनाणिणो वि हु, निसिभत्तं परिहरंति वहमूलं। लोइयसिद्धतेसु वि, पडिसिद्धिमिणिं जओ भणियं ।। 163 ।। प्रत्यक्षज्ञानिनः अपि खलु, निशिभक्तं परिहरन्ति वघमूलं। लौकिकसिद्धान्तेषु अपि, प्रतिषिदं इदं यतः भणितं ।। 163|| प्रत्यक्ष में प्राणियों की हिंसा का हेतु जानकर ज्ञानी जन भी रात्रि भोजन का परित्याग करते हैं। न केवल जैन सिद्धान्त में अपितु लौकिक सिद्धान्तों में भी रात्रिभोजन का निषेध कहा गया है।
इय अन्नाण वि वज्ज, निसिभत्तं विविहजीववहजणयं । छज्जीवहियरयाणं, विसेसओ जिणमयट्ठियाणं।। 164।। इति अन्यानां अपि वयं निशिभक्तं विविधजीववधजनकं । षड्जीवहित रताना, विशेषतः जिनमतस्थितानां ।। 164।। जब विविध जीवों के वध का हेतु रात्रिभोजन अज्ञ लोगों के लिये भी
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