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उपदेश पुष्पमाला/ 73
महर्षि सुदर्शन का निर्मल चारित्र अभिनन्दनीय है, जो विषम समय में भी ब्रह्मचर्य व्रत के पालन में अस्खलित रहें।
वंदामि चरणजुयलं, मुणिणो सिरिथूलभद्दसामिस्स। जो कसिणभुयंगीए, पडिओ वि मुहे न निड्डसिओ।। 158 ।।
वन्दे चरण-युगलं, मुनैः श्री स्थूलभद्रस्वामिनः । यः कृष्णभुजङगे, पतितः अपि मुखे न निर्दष्टः ।। 158 ।। मैं स्थूलिभद्र स्वामी के चरण युगल में वन्दना करता हूँ जो कृष्ण भुजंगीरूपी कोशागणिका के मुख में प्रवेश करके भी उसके द्वारा ग्रसित नहीं हुए अर्थात् उसके घर में निवास करते हुये भी उसमें आसक्त नहीं हो पाये।
जइ वहसि कहवि अत्थं निग्गंथं पवयणं पवण्णो वि। निग्गंथत्ते तो सासणस्स मइलत्तणं कुणसि।। 159 ।। यदि वहसि कथमपि अर्थ, निर्ग्रन्थं प्रवचनं प्रपन्नोऽपि। निर्ग्रन्थत्वे ततः शासनस्य मालिन्यमेव करोति।। 159 ।। यदि निर्ग्रन्थ प्रवचन को स्वीकार करके भी कोई मुनि अर्थ का संग्रह करता है तो वह जिन शासन को ही मलिन करता है।
तम्मइलणा उ सत्थे, भणिया मूलं पुणब्भवलयाणं। निग्गंथो अत्थं, सव्वाणत्थं विवज्जेज्जा।। 160 || तन्मलिनता तु शास्त्रे, भणिता मूलं पुनर्मवलतानां।
निर्ग्रन्थः ततः अर्थ, सर्वानर्थम् विवर्जयेत् ।। 160|| जिन शासन में परिग्रह को जन्म-मरण रूपी लता की उत्पत्ति का कारण बताया है। अतः निर्ग्रन्थ मुनि अनर्थों के मूल अर्थ का परित्याग करें।
जइ चक्कविट्टिरिद्धिं, लद्धं पि चयंति केइ सप्पुरिसा। को तुज्झ असंतेसु वि, धणेसु तुच्छेसु पडिबंधो? || 161।।
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