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________________ 72 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री चाहिए । देवेसु वीयराओ, चारित्ती उत्तमो सुपत्तेसु । दाणाणमभयदानं वयाण बंभव्वयं परमं ।। 154 ।। देवेषु वीतरागः चारित्री उत्तमः सुपात्रेषु । दानानां अभयदानं व्रतानां ब्रह्मव्रतं परमं ।। 154 ।। जैसे देवों में उत्तम वीतराग परमात्मा सुपात्रों में उत्तम चारित्रवान् मुनि, दान में उत्तम अभयदान है वैसे ही सब व्रतों में उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत है । धरउ वयं चरउ तवं सहउ दुहं वसउ वणनिकुंजेसु । बंभवयं अधरिंतो, बंभा वि हु देइ मह हासं ।। 155 ।। धरतु व्रतं चरतु तपः सहतां दुःखं वननिकुंजेषु । ब्रह्मव्रतं अधरन् ब्रह्मापि खलु ददाति मम हास्यं ।। 155 1 व्रतों को धारण कर लिया, तप का आचरण कर लिया, दुःखों को सहन कर लिया, वन कुंजों में निवास कर लिया परन्तु यदि ब्रह्मचर्य व्रत - पालन नहीं किया तो ऐसे साधक पर और तो क्या स्वयं ब्रह्मा भी हँसेगा । · जं किंचि दुहं लोए, हइपरलोउब्भवं पि अइदुसहं । तं सव्वं चिय जीवो, अणुभुंजइ मेहुणासत्तो ।। 156 || यत् किंचित् दुःखं लोके, इह-परलोकोद्भवमपि अतिदुःसहं । तत् सर्वमेव जीवः, अनुभुङ्क्ते मैथुनासक्तः ।। 156 ।। इस लोक में एवं परलोक में जो भी अल्पदुःख या अतिदुःख हैं उन्हें मैथुन में आसक्त जीव ही भोगते हैं । नंदंतु निम्मलाई, चरियाई सुदंसणस्स महरिसिणो । तह विसमसंकडेसु वि, बंभवयं जस्स अक्खलियं ।। 157 || नन्दन्तु निर्मलानि चरित्राणि सुदर्शनस्य महर्षेः । तथा विषमसंकटेषु अपि ब्रह्मव्रतं यस्य अस्खलितं ।। 157 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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