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________________ उपदेश पुष्पमाला / 71 वसुराजा द्वारा असत्य वचन बोलने के कारण उनकी अपकीर्ति हुई एवं नारद के द्वारा सत्य वचन बोलने के कारण उनका सुयश फैला। ऐसा सुनकर कौन होगा जो असत्य बोलने में आनन्द लेगा ? अतः कोई भी असत्य नही बोलेगा । अवि दंतसोहणं पि हु, परदव्वमदिन्नयं न गिण्हेज्जा । इहपरलोगगयाणं, मूलं बहुदुक्खलक्खाणं ।। 151 ।। अपि दन्त शोधनमात्रमपि पर द्रव्यमादीन् एव न गृहीयात् । इह पर लोकगतानां मूलं बहुदुःखलक्षाणाम् ।। 151 ।। दन्त शोधन हेतु तृण मात्र उसके स्वामी की अनुमति के बिना नहीं लेना चाहिये, क्योंकि यह स्तेन कर्म इस लोक में एवं परलोक में प्राणियों के लिये अनेक दुःखों का कारण होता है। तइयव्वए दढत्तं गिहिणो वि नागदत्तस्स । कह तत्थ होंति सिढिला, साहू कयसव्वपरिचाया? ।। 152 ।। तृतीयव्रते दृढत्वं श्रुत्वा गृहस्थस्यापि नागदत्तस्य । कथं तत्र भवन्ति शिथिला, साधवः कृत- सर्वपरित्यागाः ।। 152 ।। गृहस्थ जीवन में भी नागदत्त ने अस्तेय ( अचौर्य) व्रत की दृढता से पालना की, तो फिर सावद्य योगों का परित्याग करने वाले साधु अचौर्य व्रत में शिथिल कैसे होंगे ? अर्थात् नहीं होंगे। " नवगुत्तीहिं विसुद्धं धरिज्ज बंभं विसुद्धपरिणामो । सव्ववयाण वि परमं सुदुद्धरं विसयलुद्धाणं ।। 153 || नवगुप्तिभि: विशुद्दं, धरेत् ब्रह्म विशुद्द - परिणामः । सर्वव्रतानां अपि परमं सुदुर्धरं विषयलुब्धानां ।। 153 ।। साधक को नव गुप्तियों से विशुद्ध सर्व व्रतों में श्रेष्ठ विषयासक्त जीवों के लिये अति कठिन विशुद्ध परिणाम वाले इस ब्रह्मचर्य को धारण करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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