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70 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
लोकेऽपि अलीकवादी, विश्वसनीयो न भवति भुजंग इव।
प्राप्नोति अवर्णवाद, पित्रोः अपि ददाति उद्वेगं ।। 147 ।। जिस प्रकार इस संसार में असत्य भाषण करने वाला सर्प के समान विश्वसनीय नहीं होता है। इसी प्रकार माता-पिता को कष्ट देने वाला भी निन्दनीय होता है।
आराहिज्जइ गुरुदेवयं व जणणिव्व जाणइ वीसंभ। पियबंधवोव्व तोसं, अवितहवयणाो जणइ लोए।। 148 ।।
आराध्यते गुरूदेवाविव जनयति विस्रम्भ। प्रियबान्धव इव तोष, अवितथवचनं जनयति लोके ।। 148 ।। सत्य वचन बोलने वाला इस लोक में देव, गुरू एवं धर्म के समान मान्य होता है, माता की तरह विश्वसनीय होता है तथा प्रिय बन्धु की तरह आत्म तोष देने वाला होता है। ___ मरणे वि समावडिए, जंपति न अन्नहा महासत्ता।
जन्नफलं निवपुट्ठा, जह कालगसूरिणो भयवं ।। 149 ।।
मरणेऽपि समापतिते, जल्पन्ति न अन्यथा महासत्वाः। यण्ज्ञफलं नृपपृष्टा, यथा कालकासूरिणः भगवंतः।। 149 ।। महासत्वशाली व्यक्ति (महापुरूष) मृत्यु के उपस्थित होने पर भी सत्य वचन का परित्याग नहीं करते हैं। जैसे- नृप के द्वारा यज्ञ का फल पूछने पर कालकाचार्य ने सत्य ही कहा था कि यज्ञ (हिंसा से युक्त यज्ञ) का फल नरक है।
वसुनरवडणाो अयसं, सोऊण असच्चवाइणोकित्तिं। सच्चेण नारयस्स वि, को नाम रमिज्ज?अलियम्मि।। 150 ||
वसुनरपतेः अयशः, श्रुत्वा असत्यवादिनः कीर्ति । सत्येन नारदस्य अपि, कः नाम रमेत ? अलीके ।। 15011
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