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________________ उपदेश पुष्पमाला / 67 उनको सम्यक् प्रकार से धारण कर तीन योग से व तीन करण से छः जीव निकाय के घात से निवृत्त हो गये हैं, वे परिहारी कहलाते हैं। अप्पत्ते अकहित्ता अणहिगयऽपरिच्छणे य आणाई । दोसा जिणेहिं भणिया, तम्हा पत्ता दुवद्वावे ।। 138 ।। अप्राप्ते अकथयित्वा अनधिगतापरिक्षणे च आज्ञादि । दोषाः जिनैः भणिताः तस्मात् प्राप्ता द्वौ एव उपस्थापयेत् ।। 138 ।। उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) के योग्य काल को अप्राप्त की और उसके श्रद्धान् और ज्ञान की परीक्षा किये बिना उपस्थापना नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे जिन - आज्ञा के उल्लंघनरूप दोष लगता हैं। सेहस्स तिन्नि भूमी, जहन्न तह मज्झिमा य उक्कोसा । राइंदिय सत्त चउमासिसा व छम्मासिया चेव ।। 139 ।। शैक्षस्य तिम्रो भूमिका, जघन्या तथा मध्यमा च उत्कृष्टा । रात्र्यादिक सप्त चतुर्मासिका च षण्मासिका चैव ।। 139 ।। नव दीक्षित शिष्य को उपसम्पदा ( महाव्रतारोहण ) की तीन भूमिकायें है जघन्य से सात अहोरात्र, मध्यम से चार मास और उत्कृष्ट से छहमास । इस कालावधि के पूर्ण होने पर शिष्य के ज्ञानादि का परीक्षण करके ही उसे उपसम्पदा प्रदान करना चाहिए । पुव्वोवद्वपुराणे करण्जयठ्ठा जहिण्णया भूमी । उक्कोसा उ दुम्मेहं, पहुच्च अस्सद्दहाणं च ।। 140 ।। पूर्वोपस्थ-पुराणे, करणजयस्था जघन्यिका भूमी । उत्कृष्टा तु दुर्मेधसं, प्रतीप्य अश्रद्ददानस्य च ।। 140 ।। पूर्व में जो महाव्रतों में उपस्थापित हो चुका था, किन्तु कारण - वशात् संयम च्युत् होकर पुनः दीक्षित हुआ है, तो उसकी उपसम्पदा की जघन्य काल मर्यादा सात दिन-रात है । उपसम्पदा का उत्कृष्ट काल छहमास है । यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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