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________________ 66 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री विणयवओ वि हु कयम-गलस्स तदविग्घपारगमणाय । दिज्ज सुकओवओगो, खित्ताइसु सुप्पसत्थेसु।। 134।। विनयवतः अपि खलु कृतमङ्लस्य तदविघ्नपारगमणाय । दातव्यं सुकृतोपयोगः क्षेत्रादिषु सुप्रशस्तेषु ।। 134।। जिसने जिन-चैत्य, संघपूजा आदि मंगल कार्य किये हैं, चारित्र के विघ्न को पार करने के लिये सुप्रशस्त क्षेत्रों में गुरू द्वारा बतायी विधि से साधना की हो, ऐसे विनयवान् को ही चारित्र की शिक्षा देनी चाहिये। इय एवमाइविहिणा, पाएण परिक्खिऊण छम्मासा। पव्वज्जा दायव्वा, सत्ताणं भवविरत्ताणं।। 135 ।। इति एवमादिविधिना, प्रायेण परीक्षा षण्मासान्। प्रव्रज्या दातव्या, सत्वानां भवविरक्तानां ।। 135 ।। इस प्रकार विधि पूर्वक छ: मास तक परीक्षा करके भव-विरक्त होने पर ही प्रव्रज्या देनी चाहिये। विहिपडिवनचरित्तो, दढधम्मो जइ अवज्जभीरू य। तो सो उवट्ठविज्जइ, वएसु विहिणा इमो सो उ।। 136 ।। विधिप्रतिपन्न चरित्रः, दृढ़धर्मः यदि अव्रतभीरू च। ततः सः उपस्थाप्यते, व्रतेषु विधिना इयं सा तु ।। 136 || विधि पूर्वक प्रतिपन्न चारित्र वाला अर्थात् सामायिक चारित्र को प्राप्त यदि दृढधर्मी हो, पापभीरू हो, तो ही उसे व्रतों में उपस्थापित करना चाहिये। पढिए य कहिय अहिगय, परिहारुढ़ावणाए सो कप्पो। छज्जीवधायविरओ, तिविहंतिविहेण परिहा(?) री(रो)।। 137 ।। पठिते च कथिते अधिगते परिहारोत्थापनायां सः कल्प्यः । षजीवघातविरतः त्रिविधं त्रिविधेन परिहारी।। 137 ।। जो सूत्र का अध्ययन कर तथा गुरु द्वारा उनके कार्य को सुनकर तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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