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उपदेश पुष्पमाला / 65
बालाइदोसरहियो, उवद्विओ जइ हविज्ज चरणऽत्थं । तं तस्स पउत्तोलो - यणस्स सुगुरुहिं दायव्वं ।। 131 ।।
बालादिदोषरहितः, उपस्थितः यदि भवेत् चरणार्थं । तदा तस्य प्रयुक्ता - लोचनस्य सुगुरूभिः दातव्यं ।। 131 ।। पूर्वोक्त बालादि दोषों से रहित है, यदि वह प्रव्रज्या के लिये उपस्थित हुआ हो तो सर्वप्रथम उससे आलोचना करवाये, फिर सुगुरु उसे चारित्र अंगीकार करवाये ।
आलोयणसुद्दस्स वि, दिज्ज विणीयस्स नाविणीयस्स । नहि दिज्जइ आभरणं, पलियत्तियकन्नहत्थस्स ।। 132 ।। आलोचनाशुद्धियस्यापि देयं न अविनीतस्य ।
न हि दीयते आचरणं परिकर्तितकर्णहतस्य ।। 132 ।। आलोचना से शुद्ध होने पर भी यदि विनीत हो तो ही उसे प्रवज्या दे। जैसे— बिना कान एवं हाथ वालों को आभूषण नहीं दिये जाते वैसे ही अविनीत को दीक्षा नहीं दी जाती है।
अरत्तो भत्तिगओ, अमुई अणुवत्तओ विसेसन्नू । उज्जुत्तोऽपरिततो, इच्छियमत्थं लहइ साहू ।। 133 ।। अनुरक्तः भक्तिगतः अमोचकः अनुवर्तकः विशेषज्ञः । उद्युक्तः परितान्तो, इच्छितमर्थ लभते साधुः ।। 133 ।। गुरु भक्ति में अनुरत हो, यावज्जीवन गुरु चरणों का परिहार करने वाला न हो, सत्-असत् वस्तु के विवेक से युक्त हो, अध्ययन, सेवा आदि में प्रयत्नशील हो, गुरु आज्ञा को सुनकर दुःखी न होने वाला हो, ऐसे गुणों वाला विनीत होता है। अतः शिष्य में विनीतता के गुण का अन्वेषण करके ही प्रव्रज्या प्रदान करें।
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