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________________ 58 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री संकाकंखविगिच्छा, पासंडीणं च संथवपसंसा। तस्स य पंचऽइयारा, वज्जेयव्वा पयत्तेणं।। 107 ।। शंकाकाङ्क्षा विचिकित्सा पाखण्डीनां च संस्तवप्रशंसा। तस्य च पंचाचाराः वर्जनीयाः प्रयत्नेन।। 107 ।। शंका, काङ्क्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा और उनका संस्तव (गुणगान) ये सम्यक्त्व के पांच अतिचार है। उन्हें प्रयत्न पूर्वक त्यागना चाहिये। पिंडप्पयाणहुयणं, सोमग्गहणइलोयकिच्चाई। वज्जसु कुलिंगिसंग, लोइयतित्थेसु गमणं च।। 108 ।। पिण्डप्रदानं हवनं सोमग्रहणादि लोककृत्यानि। वर्जय कुलिङ्गिसंग, लौकिकतीर्थेषु गमनं च।। 108 ।। पिण्डदान, हवन, चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण आदि रूप लौकिक कर्म काण्डों का त्याग करें तथा कुलिंगी का संग और लौकिक तीर्थों पर जाने का भी त्याग करें। मिच्छत्तमाविअच्चिय, जीवो भवसायरे अणाइम्मि। दढचित्तो वि छलिज्जइ, तेण इमो नणु कुसंगेहिं।। 109 ।। मिथ्यात्व भावित एव, जीवः भवसागरे अनादौ। दृढ़चित्तोऽपि छल्यते तेन इमं अयं कुसगैः।। 109 ।। अनादि काल से भव्यजीव ने संसार में मिथ्यात्व-दशा से युक्त रहकर परिभ्रमण किया है। अतः सम्यक्त्वी एवं दृढ-चित्त वाला व्यक्ति भी कुसंगति के प्रभाव के कारण ही छला जाता है। जस्स भवे संवेओ, निव्वेओ उवसमो य अणुकंपा। अत्थित्तं जीवाइसु, नज्जइ तस्सऽत्थि सम्मत्तं ।। 11011 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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