________________
उपदेश पुष्पमाला / 57
अचलियसम्यक्त्वानां सुराः अपि आज्ञां कुर्वन्ति भक्त्या । यथा अमरदत्त भार्यायाः अथवा नृपविक्रमादीनाम् ।। 103 || देवगण भी दृढ़ सम्यक्त्वी की आज्ञा का भक्ति पूर्वक पालन करते हैं । जैसे- अरमदत्त की भार्या अथवा विक्रम राजा आदि के प्रसंग कथानकों में उल्लेखित है ।
अंतोमुहुत्तमित्तंपि, फासियं जेहिं हुज्ज सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढपोग्गल - परियट्टो चेव संसारो ।। 104।। अन्तर्मुहूर्तमात्रमपि स्पृष्टं (आसादितं ) यैः भवेत् सम्यक्त्वं । तेषां अपार्द्धपुद्गलपरावर्त एव संसारः ।। 104 ||
जिसने अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया है, तो उसका संसार परिभ्रमण मात्र अर्घपुद्गल परावर्तन काल तक ही शेष रहता है। लब्मंति अमरनरसंपया उ सोहग्गरूवकलियाओ ।
न य लब्भइ सम्मत्तं, तरंडयं भवसमुद्दस्स ।। 105 ।। लभन्ते अमरनरसंपदं तु सौभाग्यरूपकलिताः ।
न च लभ्यते सम्यक्त्वं तरण्डकं भव- समुद्रस्य ।। 105 ।। अनेक देव एवं मनुष्य भी सौभाग्य-कलि बाह्य संपदा को प्राप्त कर लेते हैं, परंतु संसार रूपी सागर से पार होने के लिये सम्यक्त्व की सम्पदा को प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।
खइयं खओवसमियं, वेययमुवसमियं च सासाणं ।
पंचविहं सम्मत्तं पण्णत्तं वीयरागेहिं ।। 106 ।।
क्षायिक क्षयोपशमिकं वेदकं औपशमिकं सास्वादणं ।
पंचविध सम्यक्त्वं प्रज्ञप्तं वीतरागैः ।। 106 ।। क्षायिक, क्षायोपशमिक, वेदक, औपशमिक और सास्वादान ये पांच प्रकार के सम्यक्त्व, वीतराग परमात्मा द्वारा प्रणीत हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org