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________________ 56 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री पडिवज्जामाणया वि हु, विगलिंदिया अमणवज्जिया होति। ____ उभयाभावो एगिदिएसु सम्मत्तलद्धीए।। 100 || प्रतिपन्नमानकाः अपि खलु विकलेन्द्रिया अमनस्काः भवन्ति । उभयाभावात् एकेन्द्रियेषु सम्यक्त्वलब्धेः।। 100 ।। विकलेन्द्रिय एवं अमनस्क भी पूर्व प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान होकर भी विवेक शक्ति-रूप मन के अभाव के कारण और एकेन्द्रिय में इन दोनों का भी अभाव होने के कारण इन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति असम्भव है। जह धन्नाणं पुहई, आहारो नहयलं व ताराणं। तह नीसेसगुणाणं, आहारो होइ सम्मत्तं ।। 101 || यथा घान्यानां पृथ्वी, आधारः नभस्थलं वा ताराणां । तथा निःशेष गुणानां, आधारः भवति सम्यक्त्वं ।। 101 ।। जैसे धान्य का आधार पृथ्वी है, तारों का आधार आकाश है, वैसे ही सम्पूर्ण गुणों का आधार सम्यक्त्व है। सम्मदिट्टी जीवो, गच्छइ नियमा विमाणवासीसु । जइ न विगयसम्मत्तो, अहव न बद्धाउओ पुव्विं ।। 102|| सम्यग्दृष्टि: जीवः, गच्छति नियमात् विमानवासीषु । यदि न विगतसम्यक्त्वं अथवा न बद्धायुः च पूर्व ।। 102।। यदि सम्यक्त्व मलिन न हुआ हो अथवा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पूर्व आयु का बंध न किया हो तो सम्यग्दृष्टि जीव नियमतः विमानवासी देव ही होता अचलियसम्मत्ताणं, सुरा वि आणं कुणंति भत्तीए। जह अमरदत्तभज्जाए अहव निवविक्कमाईणं।। 103 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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