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________________ उपदेश पुष्पमाला / 55 पइसमयं सुज्झतो, खविउ कम्माइं तत्थ बहुयाइं । मिच्छत्तम्मि उइण्णे, खीणे अणुइयम्मि उवसंते ।। 97 ।। प्रतिसमयं शुध्यन्तः, क्षपयित्वा कर्माणि तत्र बहुलानि । मिथ्यात्वं उदीर्णे, क्षीणे अनुदिते उपशांते ।। 97 ।। प्रति समय अनन्त विशुद्धि द्वारा आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म को अत्यन्त क्षीण करके, मिथ्यात्व की उदीरणा द्वारा मिथ्यात्व के दलिकों को पुन: संयोजन कर उन्हें उपशान्त कर लेता है । संसारगिम्हतविओ, तत्तो गोसीसचंदणरसं व । अइपरमनिव्वुइकरं, तस्सं ते लहइ सम्मतं । । 98 ।। संसारग्रीष्मतप्त तत्वतः गोशीर्ष चन्दनरसं इव । अति परमनिवृत्तिकरं, तस्य अन्ते लभते सम्यक्त्वं ।। 98 ।। जिस प्रकार चन्दन को पाकर गर्मी से तप्त संसार स्वतः शीतल हो जाता है वैसे ही अनिवृत्तिकरण रूपी चन्दन को पाकर मिथ्यात्वरूपी आग स्वतः शान्त हो जाती है । इस अनिवृत्तिकरण के अंत में जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। पुळ्पडिवन्नपडिवज्ज– माणया निरयमणुयदेवा य । तिरिएसुं तु पवन्ना, बेइंदियमाइणो होज्जा ।। 99 ।। पूर्वप्रतिपन्न - प्रतिपद्यमान - काः नारकमनुजदेवाः च । तिर्यंचेषु तु प्रतिपन्ना, द्वीन्द्रियादयः भवेयुः । । 99 । । नारक, देव और मनुष्य पूर्व प्रतिपन्न (बोध को प्राप्त) और प्रतिपद्यमान ( उपदेश को प्राप्त) होते हैं । देव और मनुष्य धर्म श्रवण कर बोध को प्राप्त करते हैं। नारकीय वेदना सहन कर, कर्म निर्जराकर बोध को प्राप्त होते हैं तथा तिर्यंचों में भी बेइन्द्रिय आदि प्रतिपन्न हो सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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