________________
54 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
इस ग्रन्थी का भेदन नहीं करता है तब तक सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि यह ग्रन्थी-भेदन सम्यक्त्व की उपलब्धि है ।
उल्लसियगरुयविरिया, धन्ना लहुकम्मुणो महऽप्पाणो । आसण्णकालभवसि - द्विया य तं केइ भिंदंति ।। 94 ।। उल्लसितगुरूक वीर्याः धन्या लघुकर्माणः महात्मानः । आसन्नकाल—-भवसिद्दिकाः च तं केचित् भिन्दन्ति ।। 94 । । उल्लसित मन वाले, शक्ति सम्पन्न, अल्प कर्म वाले सौभाग्यशाली महात्मा शीघ्र ही ग्रन्थी भेदन करके सिद्धि को प्राप्त करते हैं।
जे उण अभव्वजीवा, अनंतसो गंठिदेसपत्ता वि । ते अकयगंठिया, पुणोवि वड्ढति कम्माई || 95 ।। ये पुनः अभव्याजीवाः अनन्तशः ग्रंथिदेशं प्राप्ता अपि । ते अकृत - ग्रंथिभेदाः पुनरपि वर्धयन्ति कर्माणि ।। 95 ।। अभव्य जीव अनेक बार ग्रन्थी- देश प्राप्त करने पर भी अर्थात् उस राग-द्वेष रुपी ग्रन्थी को जान लेने पर भी ग्रन्थी-भेदन नहीं कर पाते हैं, जिससे वे पुनः नवीन, प्रगाढ़ कर्मों के बन्ध को प्राप्त होते रहते हैं । तं गिरिवरं व भेत्तुं अपुव्वकरणोग्गवज्जधाराए । अंतोमुहूत्तकालं, गंतुं अनियट्टिकरणम्मि ।। 96 || तं गिरिवरं इव भेत्तुं अपूर्व करणोग्रवज्रधारया । अन्तमुहूर्तकालं, गन्तुम् अनिवृत्तिकरणं || 96 || पर्वत - भेदन में प्राप्त सफलता की तरह ही ग्रन्थी भेदन करने वाले साधक को अपूर्व आनन्द या वीर्योल्लास की ऐसी अनुभूति जो पूर्व में कभी नहीं हुयी, अपूर्वकरण कहलाती है। ऐसा साधक अन्तर्मुहूर्त काल में अनिवृत्तिकरण को प्राप्त करता हैं।
"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org