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________________ उपदेश पुष्पमाला/53 अरिहं देवो गुरुण, सुसाहुणो जिणमयं मह पमाणं। इच्चाइ सुहो भावो, सम्मत्तं बिंति जगगुरुणो।। 90।। अर्हन् देवः गुरवः सुसाधवः जिनमतं महाप्रमाणं। इत्यादि शुभ भावः सम्यकत्वं वदन्ति जगत् गुरवः ।। 9011 अरिहंत मेरे देव हैं, सुसाधु मेरे गुरु हैं, जिन-प्रणीत धर्म ही प्रमाण है, इत्यादि शुभ-भाव ही सम्यक्त्व है, ऐसा जगत्-गुरुओं अर्थात् तीर्थंकरों ने कहा है। भमिऊण अणंताई, पोग्गलपरियट्टसयसहस्साइं। मिच्छत्तमोहियमई, जीवा संसारकंतारे।। 91 ।। पावंति खवेऊणं, कम्माइं अहापवत्तिकरणेणं। उवलनाएण कहमवि, अभिन्नपुट्विं तओ गंठिं।। 92 ।। भ्रान्त्वा अनन्तानि, पुद्गल-परावर्तशत-सहस्त्राणि। मिथ्यात्व-मोहित-मतयः जीवाः संसार-कान्तारे।। 91।। प्राप्नुवन्ति क्षपयित्वा, कर्माणि यथाप्रवृत्तिकरणेन। उपलज्ञानेन कथमपि अभिन्नपूर्वां ग्रंथिं ततः।। 92 || मिथ्यात्व-मोह ग्रसितजीव संसार अटवी में अनन्त पुद्गल परावर्तन काल तक भ्रमण करता हुआ कदाचित् नदी-पाषाण न्याय से कर्म क्षय कर यथाप्रवृत्ति करण से ग्रन्थि-भेदन कर लेता है। गंठिं भणंति मुणिणो, घणरागद्दोसपरिणइरूवं। जम्मि अभिण्णे जीवा, न लहंति कयाइ सम्मतं ।। 93 || ग्रन्थी भणन्ति मुनयः, घनरागद्वेष-परिणति-स्वरूपं। यस्मिन् अभिन्ने जीवाः न लभन्ते कदापि सम्यक्त्वं ।। 93 ।। राग-द्वेष की तीव्र परिणति को मुनिगण ग्रन्थी कहते हैं। साधक जब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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