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36 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
किं एत्तो लट्ठयरं, अच्छेरतरं व सुंदरतरं वा। चंदमिव सव्वलोया, बहुस्सुअमुहं पलोयंति।। 34|| किं एतस्मात् लष्टतरं आश्चर्यतरं वा सुन्दरतरं वा।
चन्द्रमिव सर्वलोकाः बहुश्रुतमुखं प्रलोकयति ।। 34|| ज्ञान ही चित्त को विस्मित करने वाला अर्थात् आनन्द देने वाला एवं सुन्दरतम है। जैसे- सभी व्यक्ति निर्मल चन्द्र के दर्शन करते हैं।
छट्ठऽहमदसमदुवालसेहिं अबहुस्सुअस्स जा सोही। एत्तो उ अणेगगुणा, सोही जिमियस्स नाणिस्स।। 35 ।।
षष्टाष्टदशद्वादशैः अबहुश्रुतस्य या शुद्दिः । एतस्याः तु अनेकगुणाः, शुद्धिः जिमितस्य ज्ञानिनः ।। 35।। दो, तीन, चार अथवा पांच उपवास से अगीतार्थ की शुद्धि होती है किन्तु उससे अनेक गुणा अधिक शुद्धि उद्गम आदि दोषों से रहित विशुद्ध आहार ग्रहण करने वाले गीतार्थों की होती है।
नाणेण सव्वभावा, नज्जति सुहुमबायरा लोए। तम्हा नाणं कुसलेण, सिक्खियव्वं पयत्तेणं ।। 36 ||
ज्ञानेन सर्वभावाः ज्ञायन्ते सूक्ष्म बादरा लोके।
तस्मात् ज्ञानं कुशलेन शिक्षितव्यं प्रयत्नेन।। 36 || इस लोक में सभी आन्तरिक एवं बाह्य भावों को ज्ञान से जाना जा सकता है। अतः सम्यक् प्रयत्न पूर्वक ज्ञान सीखना चाहिये।।
नाणमकारणबंधू, नाणं मोहंधयारदिणबंधू। नाणं संसारसमुद्दतारणे बंधुरं जाणं ।। 37 ।।
ज्ञानमकारणबन्धू, ज्ञानं मोहान्धकारं दीनबन्धुः। ज्ञानं समुद्रतारणे वन्धुरं (सुन्दरं, प्रधान) यानं।। 37 ।। ज्ञान निस्वार्थ मित्र है, मोह रूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्य के
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