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उपदेश पुष्पमाला / 37
समान है और संसार सागर को पार करने के लिये श्रेष्ठ नौका के समान
है ।
वसणसयसल्लियाणं, नाणं आसासयं सुमित्तुव्व । सागरचंदस्स व होइ, कारणं सिवसुहाणं च ।। 38 ।। व्यसनशतशल्लिताणां ज्ञानं आश्वासकं सुमित्रमिव । सांसारचन्द्रस्य इव भवति, कारणं शिवसुखाणां च ।। 38 ।। सैकडों दुर्व्यसनों से जन्य आन्तरिक पीडाओं को दूर करने में कल्याणकारी मित्र के समान ज्ञान ही हमें आश्वस्त करता है, एवं ज्ञान ही मोक्ष सुख का कारण है । जैसे- सागरचन्द्र को ज्ञान से ही विभिन्न बाधाएँ दूर होकर सुख की उपलब्धि हुयी थी ।
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पावाओविणियत्ती, पवत्तणा तह य कुसलपक्खम्मि । विणयस्स य पडिवत्ती, तिन्नि वि नाणे सम्प्पंति ।। 39 । । पापात् विनिवृत्ति, प्रवर्तना तथा च कुशलपक्षे । विनयस्य च प्रतिपत्तिः, त्रीणि अपि ज्ञाने समाप्यन्ते ।। 39 । । पाप से निवृत्ति, धर्म मार्ग मे प्रवृत्ति एवं विनय - गुण की प्राप्ति ये तीनों ज्ञान से ही प्राप्त होते हैं ।
गंगा वालुअं जो, मिणिज्ज उल्लिंचि (उं जो ) ऊण (?) समत्थो । हत्थउडेहिं समुद्दं, सो नाणगुणे भणिज्जा हि || 40 ।। गङ्गायाः वालुकां यः मिनुयात् उल्लचिंतुं यः असमर्थः । हस्त-पुटैः समुद्रं, सः ज्ञान गुणे भणेत् हि (नापर: ) ।। 40 ।। नदी के रज कणों को गिनने में एवं समुद्र के पान को हाथ से उलीचने में जैसे कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं है, वैसे ही ज्ञान के अनन्त गुणों को कहने में ज्ञानी भी असमर्थ है।
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