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उपदेश पुष्पमाला / 35
जगत्-प्रसिद्ध इस आश्चय को देखो - शीतल, मृदु और धीरे-धीरे बहती हुयी जल धारा सुदृढ़ पर्वत को भी भेद देती है, इसी प्रकार निरन्तर अभ्यास से श्रुत रहस्य रूपी पर्वत को भी भेदा जा सकता है।
सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिया वि। तह जीवो वि ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे ।। 31 ।। सूचिः यथा ससूत्रा, न नश्यति कचवरे पतिता अपि । तथा जीवः अपि ससूत्रः, न नश्यति गतोऽपि संसारे ।। 31 ।। जिस प्रकार धागे से पिरोई हुई सूई कचरे में गिर जाने पर भी पुनः प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान से युक्त जीव संसार चक्र मे परिभ्रमण करने पर भी श्रुतज्ञान के कारण पुनः आत्म धर्म मे स्थित हो जाता है ।
सूई विजह असुत्ता, नासइ रेणुम्मि निवडिया लोए । तह जीवो वि असुत्तो, नसइ पडिओ भवरयम्मि ।। 32 ।। सूचिरपि यथा असूत्रा, नश्यति निपतिता लोके ।
तथा जीवोऽपि असूत्रः, नश्यति पतितः भवरजसि ।। 32 ।। जिस प्रकार बिना धागे की सूई रेती (धूल) में गिर जाने पर पुनः नहीं मिल सकती है उसी प्रकार श्रुतज्ञान के अभाव में संसार चक्र में पतित जीव बोधि को प्राप्त नहीं कर पाता है ।
जह आगमपरिहीणो, विज्जो वाहिस्स न मुणइ तिगिच्छं ।
तह आगमपरिहीणो, चरित्तसोहिं न याणेइ ।। 33 । । यथा आगम परिहीनो, वैद्यः व्याघेः न जानाति चिकित्साम् । तथा अगमपरिहीनो, चरित्रशुद्धिम् न जानाति ।। 33 । । जैसे- ऋषि प्रणीत शास्त्र ज्ञान के अभाव में वैद्य व्याधि को नहीं जान सकता है, उसी प्रकार आप्त पुरुष द्वारा कथित आगम ज्ञान के अभाव में चारित्र की शुद्धि कैसे करेगा ? अर्थात् नहीं कर पायेगा ।
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