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34 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
आमे घटे निक्षिप्तं यथा जलं तत् घटं विनाशयति । एवं सिद्धान्तरहस्यं, अल्पाघारं विनाशयति । । 27 ।। जैसे कच्चे घडे में पानी भरने पर पानी व घडा व्यर्थ (नष्ट) हो जाता है, उसी प्रकार अयोग्य शिष्य को दिया गया ज्ञान, ज्ञान लेने वाले के विनाश का कारण बनता है, एवं ज्ञान दाता को हँसी का पात्र बनाता है।
मेहा हुज्ज न होज्ज व लोए जीवाण कम्मवसगाणं । उज्जओ पुण तह वि हु, नाणम्मि सया न मोत्तव्वो ।। 28 ।। मेधा भवेत् न भवेत् वा लोके जीवानां कर्मवशगानाम् । उद्योगः पुनः तथाऽपि खलु, ज्ञाने सदा न मोक्तव्यः । । 28 ।। अष्ट कर्मों के वशीभूत संसार के प्राणियों में ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के द्वारा किसी-किसी की बुद्धि विकसित हो जाती है एवं किसी-किसी की बुद्धि विकसित नहीं भी होती है। फिर भी ज्ञान की प्राप्ति हेतु निरन्तर श्रुताभ्यास करते रहना चाहिये ।
जइ वि हु दिवसेण पयं, धरिज्ज वा सिलोगऽद्धं । उज्जोअं मा मुंचसु, जइ इच्छसि सिक्खिरं नाणं ।। 29 ।। यद्यपि खलु दिवसेन पदं, धरति पक्षेण वा श्लोकार्धम् ।
उद्योगं मा मुंच, यदि इच्छसि शिक्षितुं ज्ञानम् ।। 29 । । चाहे दिन भर में श्लोक का एक पद ही या पन्द्रह दिन (पाक्षिक) में अर्द्ध श्लोक ही याद होता हो फिर भी ज्ञान प्राप्ति हेतु परिश्रम करना कभी नहीं छोडना चाहिये ।
जं पिच्छह अच्छेरं, तह सीयलमउयएण वि कमेण । उदएण वि गिरी भिन्नो, थोवं थोवं वहंतेण ।। 30 ।। यत् प्रेक्षध्वं आश्चर्य, तथा शीतलमृदुनाऽपि क्रमेण । उदकेन अपि गिरिः भिन्नः स्तोकं स्तोकं वहता ।। 30 ।।
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