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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 33 अभिकंखंतेहिं सुहा-सियाई वयणाई अत्थसाराइं। विम्हियमुहेहि हरिसा-गएहिं हरिसं जणंतेहिं।। 24|| अभिकांक्षद्भिः, सुभाषितानि वचनानि अर्थसाराणि। विस्मितमुखैः, आगत हाँः हर्ष जनयद्भिः।। 24।। गुरु के सार युक्त मधुर वचनों को सुनने की इच्छा रखते हुये, विस्मित मुख-मुद्रा से, उल्लासपूर्वक, प्रसन्नचित्त, हर्ष से परिपूर्ण हो श्रुतज्ञान श्रवण करना चाहिये। गुरुपरिओसगएणं, गुरुभत्तीए तहेव विणएणं। इच्छियसुत्तत्थाणं, खिप्पं पारं समुवयंति।। 25 ।। गुरुपरितोषगतेन, गुरुभक्त्या तथैव विनयेन। इप्सितसूत्रार्थयोः, क्षिप्रं पारं समुपयान्ति।। 25 ।। गुरू भक्ति, विनय, सेवा आदि से गुरू को संतुष्ट करने वाला शिष्य इच्छित सूत्र का ज्ञान शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है। समयभणिएण विहिणा, सुत्तं अत्थो य दिज्ज जोग्गस्स। . विज्जासाहगनाएण, होंति इहरा बहू दोसा।। 26 ।। समयमणितेन विधिना, सूत्रं अर्थ च दद्याः योग्यस्य । विद्यासाधकज्ञातेन, भवन्ति इतरा बहुदोषाः ।। 26 ।। शास्त्र में अनुमोदित विधि द्वारा सूत्र और अर्थ का ज्ञान योग्य शिष्य को ही देना चाहिये, अन्यथा अयोग्य को देने पर ज्ञान देने वाला विद्या साधक व ज्ञान ग्रहण करने वाला अयोग्य शिष्य दोनों ही बहुत दोषों के भाजन बनते आमे घडे निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ। इय सिद्धतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ।। 27 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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