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________________ 26/ साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री पुष्पमाला सिद्धमकम्ममविग्गह-मकलंकमसंगमक्खयं धीरं । पणमामि सुगइपच्चल - परमत्थपयासणं वीरं ।। 1 ।। सिद्धम्, अकर्माणं, अविग्रहं, अकलङ्क, असङ्गम् अक्षरं धीरं । प्रणमामि सुगति प्रत्यलं - परमार्थ प्रकाशकं वीरं ।। 1 ।। अष्टकर्म रूपी कलंक से रहित, वीतराग दशा को प्राप्त, अशरीरी एवं अक्षय पद - रूपी सिद्धस्थान को प्राप्त, परमार्थ मार्ग (मोक्षमार्ग) के प्रकाशक, धैर्य आदि गुणों के धारक, सिद्धगति को प्राप्त भगवान् महावीर को मैं नमस्कार करता हूँ। जिणवयणकाणणाओ, चिणिऊण सुवण्णसरिसंगुणड्ढं । उवएसमालमेयं, रएमि वरकुसुममालं व ।। 2 ।। जिनवचन काननात् चित्वा स्वर्ण (सुवर्ण) सदृशंगुणाढ्यं । उपदेशमालामियं रचयामि वरकुसुम मालामिव ।। 2 ।। जिनवाणी रूपी उपवन से स्वर्ण के समान अनेक गुणों से युक्त वचन रूपी पुष्पों को चुनकर उनकी श्रेष्ठ माला के रूप में मैं इस उपदेश माला की रचना करता हूँ । रयणायरपढभट्टं रयणं व सुदुल्लहं मणुयजम्म । तत्थवि रोरस्स निहिव्व, दुल्लहो होइ जिणधम्मो ।। 3 ।। रत्नाकरेप्रभ्रष्टं, रत्नमिव सुदुर्लभं मनुज जन्मः । तथापि रोरसा निधि एव दुर्लभः जिनधर्मः ।। 3 ।। रत्नाकर (समुद्र) में गिरे हुये रत्न की पुनः प्राप्ति के समान मनुष्य जन्म भी अति दुर्लभ है। जैसे दरिद्र व्यक्ति को नवनिधि की प्राप्ति दुर्लभ है वैसे ही मनुष्य जन्म पाकर भी जिन धर्म को प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है । Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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