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उपदेश पुष्पमाला / 27
तं चेव दिव्वपरिणइ - वसेण कह कहवि पाविउं पवरं । जइयव्वं एत्थ सया, सिवसुहसंपत्तिमूलम्मि || 4 || तं (चैव) च एव दिव्य परिणति । वशान् कथं कथंमपि प्राप्य प्रवरम् । यतितव्यं अत्र सदा, शिव सुख संपत्ति मूलत्वात् ।। 4 ।। यह मनुष्य जन्म और जिनधर्म अनुकूल कर्मों के विपाक से बड़े ही कष्ट से प्राप्त होता है । यह मोक्षरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति का हेतु है । अतः ऐसे श्रेष्ठ जिनधर्म का सर्वदा पालन करना चाहिये ।
सो य अहिंसामूलो, धम्मो जियरागदोसमोहेहिं । भणिओ जिणेहिं तम्हा, सविसेसं तीऍ जइयव्वं || 5 || दानाधिकारः प्रथम स्तमाभयदान द्वारम् । अहिंसा धर्मोपदेशः सः च अहिंसा मूलः, धर्मः जितरागदोषमोहैः ।
भणितः जिनैः तस्मात् सविशेषं तस्यां यतितव्यं ।। 5 ।। राग-द्वेष मोह को जीतने वाले जिनेश्वर द्वारा प्रतिपादित जिन धर्म का मूल अहिंसा है अतः इस अहिंसा का पालन विशेष रूप से करना चाहिये । किं सुरगिरिणो गरुयं जलनिहिणो किं व होज्ज गंभीरं । किं गयणाओ विसालं, को वा अहिंसासमो धम्मो || 6 || किं सुरगिरेः गुरुकं जलानिधेः किंवा स्यात् गंभीरम् (गंभीरः ) । किं गगनात् विशालं, को वा अहिंसा समः धर्मः ।। 6 ।।
जैसे मेरु पर्वत से ऊंचा कोई पर्वत नहीं है, सागर के समान कोई गंभीर (गहरा ) नहीं हैं, आकाश की तरह कोई विशाल नहीं है इसी प्रकार अहिंसा के समान अन्य कोई धर्म नहीं है अर्थात् अहिंसा ही सर्वोच्च धर्म है। कल्लाणकोडिजणणी, दुरंतदुरियारिवग्गनिट्ठवणी । संसारजलहितरणी, एक्कच्चिय होइ जीवदया ।। 7 ।।
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