________________
166 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
जमुवेहंतो पावइ, सहू वि भवं दुहं च सोऊणं । संकासमाइयाणं, को चेइयदव्वमवहरइ ? ।। 449 ।। यदुपेक्षमाणः प्राप्नोति, साधुः अपि भवं दुःखं च सहित्वा । संकाश आदिनां कः चैत्यद्रव्यमपहरति ।। 449 ।।
चैत्य द्रव्य की अपेक्षा करता है तथा सामर्थ्य होते हुए भी उस द्रव्य की स्वयं रक्षा नहीं करता है अथवा स्वयं उसका भक्षण करता है वह अनन्त भव भ्रमण करता है। संकाश नामक भावक आदि के शास्त्र में वर्णित कथानकों का श्रवण कर कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो चैत्यद्रव्य का अपहरण करेगा ? अर्थात् कोई भी समझदार व्यक्ति चैत्य द्रव्य का अपहरण अथवा भक्षण नहीं करेगा।
जो लिगिणिं निसेवेइ, लुद्धो निद्धंधसो महापावो । सव्वजिगाण ज्झाओ, संघो आसाइओ तेण ।। 450 ।। यः लिङ्गिणीं निषेवते, लुब्धः निःशूकः महापापः । सर्वजिनानाम् ध्येयः, सङ्घः आशातितः तेन ।। 450 ।। जो साधु या गृहस्थ साध्वी के साथ काम - संसर्ग करता है वह लम्पट एवं निर्लज्ज महापापी है। उसने सभी जिनेश्वरों के सम्पूर्ण संघ का अपमान किया है।
पावाणं पावयरो, दिठ्ठिऽब्भासे वि सो न कायव्वो । जो जिणमुद्द समणिं, नमिउं तं चेव धंसेइ ।। 451 ।। पापानां पापतरः, दृष्ट्यभ्यासेऽपि सः न कर्तव्यः । यः जिनमुद्रां श्रमणीं, नत्वा तांचैव ध्वंसयति ।। 451 ।। जो व्यक्ति जिनेन्द्र मुद्रा धारण करने वाली और ज्ञानादि गुणों के कारण नमन करने योग्य श्रमणी के चरित्र को नष्ट कर उसके चारित्र रूपी जीवन को ही नष्ट कर देता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org