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________________ संसारमणवयग्गं, जाइजरामरणवेयणापउरं । पावमलपडलच्छन्ना, भवंति मुद्दाघरिसणेण ।। 452 ।। संसारमनवदग्रं, जातिजरामरणवेदना - प्रचुरं । पापमलपटलछन्नाः, भवन्ति मुद्राघर्षणेन ।। 452।। ऐसे जिनमुद्रा घाती अर्थात् चारित्रमय जीवन का विनाश करने वाला व्यक्ति जन्म, जरा, मृत्यु और रोग के दुःखों से परिपूर्ण इस संसार रूपी समुद्र में अपर्यवसित काल तक भम्रण करते हैं। वे पाप रूपी मल जिन मुद्रा धारण करने वाली साध्वी के चारित्र को भ्रष्ट (पतित) करने के फल - स्वरूप होते हैं । उपदेश पुष्पमाला / 167 अन्नं पि अणाययणं, परतित्थियमाइयं विवज्जेज्जा । आययणं सेवेज्जसु, वुड्डिकरं नाणमाईणं ।। 453 || अन्यदपि अनायतनं परतीर्थिकादिकं विवर्जयेत् । आयतनं सेवेत वृद्धिकरं ज्ञानादिनां ।। 453 | | इसी प्रकार अन्य तैर्थिक रूप अनायतन का परित्याग कर ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की वृद्धि करने वाले जैन धर्म तीर्थरूप आयतन का ही सेवन करना चाहिये । भावुगदव्वं जीवो, संसग्गीए गुणं च दोसं च । पावइ एत्थाहरणं, सोमा तह तदयवरो चेव ।। 454 ।। भावुकद्रव्यं जीवः, संसर्गेण गुणं च दोषं च । प्राप्नोति अत्रोदाहरणं, सोमा तथा द्विजवरः चेति ।। 454 ।। भावुक व्यक्ति अच्छे अथवा दुराचारी व्यक्तियों के संपर्क के कारण ही क्रमशः गुण अथवा दोष को प्राप्त करता है। इस प्रसंग में सोमा और श्रेष्ठ द्विज के उदाहरण द्रष्टव्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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