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________________ उपदेश पुष्पमाला / 165 इयरत्थीण वि संगो, अग्गीं सत्थं विसं विसेसेइ । जो संजईहिं संगो, सो पुण अइदारुणो भणिओ ।। 446 ।। इतरस्त्रीणां अपि सङ्गः, अग्निं शास्त्रं विषं विशेषयति । यः संयतिभिः सङ्गः, सः पुनः अतिदारुणः भणितः ।। 446 11 स्त्रियों का संसर्ग ( सम्बन्ध) अग्नि, शस्त्र और विष के संसर्ग से भी अति भयंकर होता है। इससे भी अधिक भयंकर कष्ट प्रदान करने वाला संयमी साध्वियों का संसर्ग होता है। चेइदव्वविणासे, इसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजइचउत्थभंगे, मूलग्गी बोहिलाभस्स ।। 447 ।। चैत्यद्रव्यविनाशे, ऋषिघाते प्रवचनस्य चोड्डाहे । संयति चतुर्थभङ्गे, मूलाग्निः बोधिलाभस्य ।। 447 ।। चैत्य द्रव्य का विनाश करने पर ऋषि (मुनि) का घात करने पर, जिन प्रवचन का अपलाप करने पर और साध्वी चतुर्थ व्रतभंग करने पर ऐसा जान पडता है मानो उसने (सामान्यतया) बोधि रूपी वृक्ष को मूल से ही जलाडाला है। वह भवभ्रमण करता है तथा उसे यथार्थ बोध की प्राप्ति भी नहीं हो पाती है। चेइयदव्वं साहारणं च जो मुसइ जाणमाणो वि । धम्मं पि सो न याणइ अहवा बद्धाउओ नरए ।। 448 ।। चैत्यद्रव्य साधारणं च यः मुष्णाति जानन् अपि । धर्म अपि सः न जानाति, अथवा बद्धायुष्कः नरके ।। 448 ।। जो चैत्यद्रव्य और साधारण खाते के द्रव्य के रूप में संग्रहित धन को चुरा कर जानते हुए भी उसका उपभोग करता है तो उसकी इस प्रवृत्ति से ही तो यह जान सकते हैं कि वह धर्म को भी नहीं जानता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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