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14 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
दान नहीं देने वाले के प्रसंग में क्रमशः धनसार श्रेष्ठि और राजा सूरसेन के पुत्र के दृष्टांत दिये गये हैं। साथ ही दान नहीं देने का फल दारिद्रय की प्राप्ति बताया गया है।
दानाधिकार के पश्चात् दूसरा शीलाधिकार है। इसमें शील के महत्त्व की चर्चा है, तथा इस सम्बन्ध में गुणसुन्दरी और सीता का कथानक वर्णित है । शील की विराधना के सम्बन्ध में मणिरथ राजा की कथा भी दी गई है।
तीसरे तप अधिकार में तप का माहात्म्य एवं प्रभाव बताया गया है । तप के माहात्म्य के सम्बन्ध में नन्दीसेन मुनि और दृढप्रहारी का चारित्र वर्णित है तथा तप के प्रभाव के सन्दर्भ में विष्णुकुमार मुनि और स्कंदक मुनि के चरित्र वर्णित है ।
चौथे भावनाधिकार में भावनाओं की चर्चा है और उनका महत्त्व स्पष्ट किया गया है ।
उसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में सम्यक्त्वशुद्धिद्वार और चारित्रशुद्धिद्वार उल्लिखित है । सम्यक्त्वशुद्धिद्वार मे सम्यक्त्व के स्वरूप तथा सम्यक्त्व के महत्त्व एवं लक्षणों को स्पष्ट किया है। सम्यक्त्व के स्वरूप की चर्चा के प्रसंग में उसके पांच लक्षणों का भी चित्रण किया गया है । सम्यक्त्व के चार चरण बताये गये है । चरणशुद्धि में मुनि दीक्षा विधि का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इसके साथ-साथ सामायिकचारित्र और छेदोपस्थापनीयचारित्र का वर्णन किया गया है। फिर पांच महाव्रतों की चर्चा करते हुये तत्सम्बन्धी कथानकों का भी निर्देश किया गया है । षड्जीव निकाय की यातना के रूप में मुनि अणगार का, सत्य बोलने के सम्बन्ध में कालकाचार्य का, असत्य बोलने के सन्दर्भ में वसुराजा का अदत-त्याग के सम्बन्ध में नागदत्त का,
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