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________________ 156 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री वेयावच्चं निययं, करेह उत्तमगुणे धरंताणं । सव्वं किर पडिवाई, वेयावच्चं अपडिवाई ।। 419 ।। वैयावृत्यं नियतं, कुरूत उत्तम - गुणे धरन्तानाम् । सर्व किल प्रतिपाति, वैयवृत्यं अप्रतिपाति ।। 419 ।। ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न साधुओं की अवश्य ही सेवा करनी चाहिए | चारित्र श्रुतज्ञानादि से गुण पतनशील है अर्थात् उनसे व्यक्ति च्युत हो सकता है परन्तु सेवा का गुण अप्रतिपाति है । पडिभग्गस्स मयस्स व नासइ चरणं सुयं अगुणणाए । न हु वेयावच्चकयं, सुहोदयं नासए कम्मं ।। 420 ।। प्रतिभग्नस्य मृतस्य वा, नश्यति चरणं श्रुतं अगुणनया । न खलु वैयावृत्यकृतं, सुखोदयं नश्यते कर्म ।। 420 ।। प्रव्रज्या से भ्रष्ट हो जाने पर व्यक्ति का चारित्र गुण नष्ट हो जाता है तथा अपरावर्तन के फल स्वरूप श्रुतज्ञान भी नष्ट हो जाता है, परन्तु वैयावृत्य से अर्जित शुभकर्म कभी भी नाश को प्राप्त नहीं होता है। अतः उसे अप्रतिपाति कहा गया हैं (तत्त्व तो केवली गम्य है ) । गिहिणो वेयावडिए, साहूणं वन्निया बहु दोसा । जह साहुणीसुभद्दाए, तेण विसए तयं कुज्जा ।। 421 ।। गृहिणः वैयावृत्ये, साधूनां वर्णिताः बहुदोषाः । यथा साध्वी सुभद्रायाः, तेन विषये तत् कुर्यात् ।। 421 ।। साधु के द्वारा गृहस्थों की वैयावृत्य (सेवा) करने के आगम में बहुत दोष बताए गये हैं, जैसा साध्वी सुभद्रा के आख्यान से ज्ञात होता है । अतः वैयावृत्य योग्य व्यक्ति की सेवा आवश्यक होने पर ही की जानी चाहिये । इच्छेज्ज न इच्छेज्ज व तहवि हु पयओ निमंतए साहू । परिणामविसुद्धीए, उ निज्जरा होइ अगहिए वि ।। 422 । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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