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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 157 इच्छेत् न इच्छेत् तथापि खलु प्रयतः निमन्त्रयेत् साधुं। परिणामविशुद्धया, तु निर्जरा भवति अग्रहीतेऽपि।। 422 || निमन्त्रित साधु वैयावृत्य स्वीकार करे अथवा न करें फिर भी वैयावृत्य करने वाले गृहस्थ को प्रयत्न पूर्वक और आदर के साथ साधुओं को भक्तपान आदि के लिये निमन्त्रित करना चाहिये। यदि वे आहारादि ग्रहण न करे तो भी उस वैयावृत्य करने वाले गृहस्थ की तो कर्म निर्जरा होती है। उसके भावों की विशुद्धि ही कर्म निर्जरा का मुख्य हेतु है। 10. स्वाध्यायरतिद्वारम् वेयावच्चे अब्भुज्जएण तो वायणाइपंचविहो। विच्चम्मि उ सज्झाओ. कायव्वो परमपयहेऊ।। 423|| __वैयावृत्ये अभ्युद्यतेन ततः वाचनादिपंचविधः। अन्तराऽन्तरा तु स्वाध्यायः, कर्तव्यः परमपदहेतु।। 423 ।। वैयावृत्य के लिये उद्यत् (तत्पर) साधु यथा समय वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुपेक्षा और धर्मकथा ऐसा पांच प्रकार का स्वाध्याय अवश्य करें (यह स्वाध्याय) भी परम पद (मोक्षपद) का प्रधान हेतु है। एत्तो सव्वन्नुतं, तित्थयरत्तंच जायइ कमेण। इय परमं मुक्खंग, सज्झाओ तेण विन्नेओ ।। 424 ।। इतः सर्वज्ञत्वं, तीर्थकरत्वं च जायते क्रमेण। इति परमं मोक्षाग, स्वाध्यायः तेन विज्ञेयः।। 424 || स्वाध्याय से क्रमशः सर्वज्ञता एवं तीर्थकरत्व भी प्राप्त हो जाता है। अतः स्वाध्याय को मोक्ष का श्रेष्ठ अंग कहा गया है। स्वाध्याय सतत रूप से करते रहना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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