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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 155 भरहेरवयविदेह, पन्नरस वि कम्मभूमिगा साहू। इक्कम्मि (वि) पूइयम्मि, सव्वे (वि) ते पूइया हुति।। 416 ।। भरतैरवतविदेहेषु, पंचदश अपि कर्मभूमिगा साधवः। एकस्मिन् अपि पूजिते, सर्वेऽपि ते पूजिताः भवन्ति ।। 416 ।। भरत, ऐरावत, विदेह आदि पन्द्रह कर्मभूमि में निवास करने वाले साधुजनों में से यदि एक भी साधु पूजा जाता है तो सभी साधु पूजित हो जाते हैं। एक्कम्मि हीलियम्मि वि, सव्वे ते हीलिया मुणेयव्वा। नाणाईण गुणाणं, सव्वत्थ वि तुल्लभावाओ।। 417 || एकस्मिन् हीलितेऽपि, सर्वे ते हीलिताः ज्ञातव्याः । ज्ञानादिगुणानां, सर्वत्र अपि तुल्यभावात् ।। 417 ।। इसी प्रकार एक साधु की अवहेलना से सभी साधुओं की अवहेलना जानना चाहिये, क्योंकि वे सभी सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अपेक्षा से समान तम्हा जइ एस गुणो, साहूणं भत्तपाणमाईहिं। कुज्जा वेयावच्चं, धणयसुओ रायतणउव्व। 418 || तस्मात् यदि एष गुणः साधूनां भक्तपानादिभिः । कुर्याः वैयावृत्यं, धनदसुत राजतनय इव ।। 418 || जैसे- एक साधु की पूजा करने से समस्त साधुओं की पूजा का लाभ मिल जाता है, उसी प्रकार एक साधु की वैयावृत्य से सभी साधुओं की भक्त-पान आदि के द्वारा की गई वैयावृत्य का लाभ मिल जाता है। अतः साधुओं की भक्त-पान आदि के द्वारा वैयावृत्य अवश्य करनी चाहिये जैसेधनराज राजकुमार ने वैयावृत्य की थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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