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152 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
आदि में लगे हुये मन का प्रवर्तन ये दो मनोयोग है।
पडिरूवो खलु विणओ, पराणुवित्त्मिइओ मुणेयव्यो। अप्पडिरूवो विणओ, नायव्वो केवलीणं तु ।। 406 ।। प्रतिरूपः खलु विनयः परानुवृत्यात्मकः ज्ञातव्यः ।
अप्रतिरूपः विनयः ज्ञातव्यः केवलीनां तु ।। 406 ।। उचित विनय को वास्तव में परानुवृत्यात्मक जानना चाहिये, अपरानुवृत्यात्मक विनय को केवली के लिये ही जानना चाहिये। प्रतिरूप विनय छद्मस्थों का होता है। एसो भे परिकहिओ, विणओ पडिरूवलक्खणो तिविहो। बावन्नविहिविहाणं, बिंति अणासायणाविणयं ।। 407 ।। एषः भवतां परिकथितः, विनयः प्रतिरूपलक्षणः त्रिविधः । द्वापंचाशविधिविधानं, त्रुवते अनाशातना विनयम्।। 407 || तीर्थंकरों एवं गणधरों के द्वारा यह परिकथित प्रतिरूप लक्षण विनय तीन प्रकार का कहा गया है और अनाशातना विनय बावन प्रकार का कहा गया है।
तित्थयरसिद्धकुलगण-संघकिरियधम्मनाणनाणीणं। आयरियथेरुवज्झाय-गणीणं तेरस पयाणि ।। 408 ।।
तीर्थंकरसिद्धकुलगणसंघक्रियाधर्मज्ञान ज्ञानिणाम् । आचरिता स्थिरोपाध्यायगणीनां त्रयोदश पदानि।। 408 ।। तीर्थकर, सिद्ध, नागेन्द्रादि कुल कौटिकादिगण, संघ, क्रियावादी यतिगण धर्म, मति आदि पांच ज्ञान और इन सबके ज्ञाता ज्ञानी आचार्य, उपाध्याय और स्थविर (गीतार्थ) ये तेरह पद हैं।
अणासायणा य भत्ती, बहूमाणो तह य वन्नसंजलणा। तित्थयराई तेरस चउग्गुणा होंति बावन्ना।। 409 1।
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