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उपदेश पुष्पमाला/ 153
अनाशातना चभक्तिः, बहुमानः तथा च वर्णसंज्वलना। तीर्थकरादयः त्रयोदशाः, चतुर्गुणा भवन्ति द्विपंचाशत्।। 409 ।। अनाशातना, भक्तिः, बहुमान वर्ण संज्वलना इन चार का तीर्थकर आदि तेरह पदों से गुणा करने पर अनाशातना विनय के बावन भेद होते हैं।
अमयसमो नत्थि रसो, न तरू कप्पदुमेण परितुल्लो। विणयसमो नत्थि गुणो, न मणी चिंतामणिसरिच्छो।। 410।।
अमृतसमो नास्ति रसः, न तरूः कल्पद्रुमेण परितुल्यः । विनय समो नास्ति गुणः, न मणिः चिन्तामणिसदृशः।। 410।। जैसे अमृत (सुधा) के समान कोई (अन्य) रस नहीं है, कल्पवृक्ष के समान कोई अन्य वृक्ष नहीं है और मणियों में चिन्तामणि के समान अन्य कोई मणि नहीं है इसी प्रकार विनय (गुण) के समान अन्य कोई गुण नहीं है।
चंदणतरूण गंधो, जुण्हा ससिणो सियत्तणं संखे। सह निम्मियाइं विहिणा, विणओ य कुलप्पसूयाणं ।। 411|| - चन्दनतरूणां गन्धः, ज्योत्स्ना शशिनः श्वेतत्वं शंखे। सह निर्मितानि विधिना, विनयश्च कुलप्रसूतानाम् ।। 411।। जैसे - चन्दन के वृक्षों में गन्ध, चन्द्रमा में चांदनी और शंख में श्वेतता उनके साथ (उनकी उत्पत्ति के समय से ही) अभिन्न नहीं होती उसी प्रकार विनय उत्तम कुल में उत्पन्न हो जाता है अर्थात् उनके साथ अभिन्न रूप से रहता है।
होज्ज असझं मन्ने, मणिमंतोसहिसुराण वि जयम्मि। नत्थि असज्झं कज्जं, किंपि विणीयाण पुरिसाणं ।। 412।।
भवेत् असाध्यं मन्ये, मणिमन्त्रौषधिसुराणां अपि जगति। नास्ति असाध्यं कार्य, किमपि विनीतानांपुरूषाणाम् ।। 412 ।। सामान्यतया मणि, मन्त्र, औषधि और देवों के लिये कोई भी कार्य असाध्य
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