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8. विनयद्वारम्
इय भवविरत्तचित्तो, विसुद्धचरणाइगुणजुओ निच्चं । विणए रमेज्ज सच्चे, जेण गुणा निम्मला हुंति ।। 397 ।। इत्थं (इति) भवविरक्त चित्तः, विशुद्धचरणादिगुणयुक्तः नित्यं । विनये रमेत सत्ये येन गुणाः निर्मलाः भवन्ति ।। 397 || इस प्रकार इस भव में विरक्त चित्त वाले होकर एवं गुण से युक्त होकर नित्य विनय गुण में रमण करें, जिससे सभी आत्मिक गुण निर्मल हो जायेंगे ।
उपदेश पुष्पमाला / 149
जम्हा विणयइ कम्मं अट्ठविहं चाउरंतमोक्खाए । तम्हा उ वयंति विऊ, विणओ त्ति विलीणसंसारा ।। 398 ।। यस्मात् विनयति कर्म, अष्टविधं चातुरन्तमोक्षादि ।
तस्मात् तु वदन्ति विदः, विनयः इति विलीनसंसाराः ।। 398।। जिस विनय से अष्टविध कर्मों का क्षय कर चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण नहीं हो उसे ही तीर्थंकरों ने वास्तविक विनय कहा है ।
लोगोवयारविणओ, अत्थे कामे भयम्मि मुक्खे य । विणओ पंचवयिप्पो, अहिगारो मुक्खविणएणं ।। 399 ।। लोकोपचार विनयः अर्थे, कामे, भये, मोक्षे च । विनयः पंचविकल्पः, अधिकारः मोक्षविनयेन ।। 399 ।। लोकव्यवहार ( औपचारिक ) विनय, अर्थ प्राप्ति हेतु किया गया विनय, काम - भोग हेतु किया गया विनय, भयवश किया गया विनय और मोक्ष प्राप्ति हेतु किये जाने वाला विनय ये विनय के पांच प्रकार है इसमें मोक्ष विनय ही सर्वोपरि है ।
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