SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 148 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री किंतु मदमानमत्सरविषादेानलेन सन्तप्ताः। तेऽपि च्युत्वा तत्तः भ्रमन्ति केचित् भवमनन्तम् ।। 393 ।। परन्तु अभिमान, मात्सर्य, विषाद, जलनरूप अग्नि से संतप्त होकर, स्वर्ग से पतित होकर, कुछ देवता अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करते रहते हैं। तम्हा सुहं सुराणवि, न किंपि अहवा इमाई सुक्खाई। अवसाण दाऊणाई, अणंतसोपत्तपुव्वाइं।। 394।। तस्मात् सुखं सुराणामपि, न किमपि अथवा इमानि सुखानि। अवसानदारूणानि, अनन्तशः च प्राप्तपूर्वाणि ।। 394 ।। ये भौतिक सुख दोनों के लिये भी सुखदायी नहीं है अथवा ये इन्द्रिय सुखादि परिणाम में दारूण दुःख देने वाले ही होते हैं। ये सभी पूर्व में भी अनन्त बार प्राप्त हुये हैं किन्तु अन्त में इनको दारूण कष्ट ही प्राप्त हुआ है। तं नत्थि किं पि ठाणं, लोए वालग्गकोडिमित्तं पि। जत्थ न जीवा बहुसो, सुहदुक्खपरंपरं पत्ता।। 395 ।। तद् नास्ति किमपि स्थानं, लोके वालाग्रकोटिमात्रमपि। यत्र न सर्वे जीवाः बहुशः सुखदुःखपरम्परां प्राप्ता ।। 395 ।। ऐसा कोई स्थान नहीं है इस लोक में जहाँ पर अनेक जीव अनन्त बार इस सुख-दुःख की परम्परा को प्राप्त नहीं हुये हो। ___ सव्वा अवि रिद्धीओ, पत्ता सव्वे वि सयणसंबंधा। संसारे तो विरमसु, तत्तो जइ मुणसि अप्पाणं ।। 396 ।। सर्वाः अपि ऋद्धयः प्राप्ता सर्वेऽपि स्वजनसम्बन्धाः। संसारे ततः विरमस्व, तत्वतः यदि जानासि आत्मानं ।। 396 || यदि यह जानते हो कि आत्मा संसार से भिन्न है तो सभी ऐश्वर्य आदि एवं सभी स्वजनों के सम्बन्ध से विरक्त हो जाओ। इति श्री पुष्पमाला विवरणे भावना द्वारे भव विराग लक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy