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142 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
ते वि य धरंति अज्जवि तेसु धरतेसु कह तुम भणसि?।
वोच्छिन्नं पच्छित्तं तद्दायारो य जा तित्थं ।। 375 ।। तेऽपि च धरन्ति अद्यापि, तेषु धरत्सु कथं त्वं भणसि ? व्यवच्छिन्नं प्रायश्चित्तं, तत् दातारः च यावत् तीर्थ ।। 375 ।। वे कल्पसूत्र आदि आज भी विद्यमान है। उनके रहते हुये ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि प्रायश्चित्त प्रतिपादक ग्रन्थ एवं गीतार्थ नहीं है। प्रायश्चित्त व्यवस्था तो तब तक रहेगी जब तक तीर्थ रहेगा, क्योंकि प्रायश्चित्त व्यवस्था के व्यवछिन्न होने पर तो तीर्थ भी व्यवछिन्न हो जायेगा। आगम में कहा गया है कि संघव्यस्था तो दुराप्रसहाचार्य-पर्यन्त रहेगी।
कयपावो वि मणूसो, आलोइयनिंदिउं गुरुसगासे। होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरुव्व भारवहो।। 376 || कृतपापोऽपि मानुषः, आलोच्य निन्दित्वा गुरूसकाशे।
भवति अतिरेकलघुकः, अपहृतमरः भारवहइव।। 376 ।। पाप करने वाला व्यक्ति भी गुरू के समक्ष अपने पापों की आलोचना करके वैसे ही अत्यन्त हल्का हो जाता है जैसे सिर पर से भार के उतर जाने से भारवाहक हल्का हो जाता है।
निट्ठवियपावपंका, सम्म आलोइउं गुरुसगासे। पत्ता अणंतजीवा, सासयसुक्खं अणावाहं ।। 377 ।।
क्षपितपापपङ्काः, सम्यक् आलोच्य गुरूसकाशे। प्राप्ता अनन्तजीवाः, शाश्वतसुखं अनाबाधिं ।। 377 ।। गुरू के समक्ष अपने अपराधों को कहकर सम्यक् आलोचना पूर्वक पाप रुपी कीचड़ से निकल कर अनन्त जीव अनाबाध शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त हुये।
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