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7. भवविरागद्वारम्
एवं विसुद्धचरणो, सम्मं विरमेज्ज भवसरूवाओ । नरगाइसेयभिन्ने, नत्थि सुहं जेण संसारे ।। 378 ।। एवं विशुद्धचरणः, सम्यक् विरमेत भवस्वरूपात् । नरकादिभेदभिन्ने, नास्ति सुखं येन संसारे ।। 378 ।। इस प्रकार विधि द्वारा प्रायश्चित्त करके सम्यक् रूप से वैराग्य को प्राप्त होकर, विशुद्ध चारित्र का पालन कर, मुक्ति को प्राप्त हो जाये, क्योंकि इस संसार में नरक आदि अनेक ऐसे दुःख पूर्ण स्थल है। इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है। अतः आलोचना करने के पश्चात् भव भ्रमण से विराग आवश्यक है।
उपदेश पुष्पमाला / 143
दहं सुसंति कलुणं, भणति विरसं रसंति दुक्खता । नेरइया अवरोप्पर - सुरखित्तसमुत्थवियणाहिं ।। 379 || दीर्घ श्वसन्ति कलुणं, भणन्ति विरसं रसन्ति दुःखार्तः ।
नेरयिकाः परस्पर- सुरक्षेत्रसमुत्थवेदनाभिः ।। 379 ।। नारकीय जीव गहरी निःश्वास छोड़ते हैं, दीन वचन बोलते हैं और क्रन्दन करते हैं अर्थात् कराहते रहते हैं परस्पर तथा परमधामी देवों और क्षत्रीय द्वारा दी जाने वाली वेदना ऐसी त्रिविध यातना उनके द्वारा सदैव भोगी जाती है।
जं नारयाण दुक्खं, उक्कतणदहणच्छिंदणाईयं ।
तं वरिससहस्से हि वि. न भणेज्ज सहस्सवयणो वि ।। 380 || यन्नारकानां दुःखं, उत्कर्तन दहनछेदनादिकं ।
तत् वर्षसहस्रः अपि न भणेत् सहस्रवदनोऽपि ।। 380 ।। उन नारकीय जीवों का काटा जाना, जलाना और छेदा जाना आदि अनेक प्रकार के दुःखों का वर्णन इन्द्र आदि भी हजारों वर्षों तक भी पूर्णरूप से
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