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उपदेश पुष्पमाला / 141
एयद्दोसविमुक्कं, पइसमयं वड्ढमाणसंवेगो । आलोएज्ज अकज्जं न पुणो काहंति निच्छइओ ।। 372 ।।
एतत्दोष - विमुक्तं, प्रतिसमयं वर्धमान - संवेगः । आलोचयेत् अकार्य, न पुनः कथयन्ति निश्चयः ।। 372 ।। साधक दोषों का परित्याग करके प्रति समय संवेग अर्थात् वैराग्य भाव की वृद्धि करते हुए और पुनः 'ऐसा अपराध नहीं करूँगा यह दृढ़ निश्चय करके अपने अपराधों की आलोचना करे, अन्यथा उसकी आराधना व्यर्थ हो जायेगी ।
जो भइ नत्थि इण्हिं, पच्छित्तं तस्स दायगा वा वि । सो कुव्वइ संसारं, जम्हा सुत्ते विणिद्दिट्ठ ।। 373 11 यः भणति नास्ति इदानीम् प्रायचित्तं तस्य दायका वा अपि । सः करोति संसारम्, यस्मात् सूत्रे विनिर्दिष्टम् ।। 373 ।। जो यह कहता है कि अब प्रायश्चित्त सम्बन्धी ग्रन्थों का अभाव है एवं प्रायश्चित्त देने वाले गीतार्थ भी नहीं है, ऐसा उन्मार्गी अपने संसार भ्रमण में अभिवृद्धि करता है । ऐसा छेद शास्त्रों में कहा गया है।
सव्वंपि य पच्छित्तं नवमे पुव्वम्मि तइयवत्थुम्मि । तत्तो वि य निज्जूढा, कप्पकप्पो य ववहारो ।। 374 ।। सर्वमपि च प्रायश्चितं नवमे पूर्वे तृतीयवस्तुनि । ततोऽपि च निर्व्यूढ़ा, कल्पःप्रकल्पो च व्यवहारः ।। 374।। सभी प्रायश्चित्तों का विधान नवमें पूर्व के अन्तर्गत तृतीय वस्तु में किया गया था। उसी कल्प सूत्र, आचार प्रकल्प सूत्र ( दशाश्रुतस्कन्ध) और व्यवहार सूत्र का उद्धरण किया गया है।
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