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________________ 140 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री लज्जाए गारवेण व, बहुस्सुयमएण वा वि दुच्चरियं । जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुंति ।। 369 ।। लज्जया गौरवेन च, बहुश्रुतमदेन वापि दुश्चरितं । ये न कथयन्ति गुरूणां न खलु ते आराधकाः भवन्ति ।। 369 || लज्जा के कारण स्वयं के गर्व (अहंकार) के कारण अथवा अपने बहुश्रुत के मद के कारण जो शिष्य अपने दुश्चरित्र को गुरू के सम्मुख नहीं बताता है, वह वास्तव में आराधक नहीं है। न वि तं सत्थं व विसं, दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । जं कुणइ भावस्सलं, अणुद्धियं सव्वदुहमूलं ।। 370 11 नापि तत् शात्रं विषं वा, दुष्प्रयुक्तः वा करोति बेतालः । यद् करोति भावशल्यं, अनुद्धरितं सर्वदुःखमूलं ।। 370 ।। शस्त्र, विष एवं कुपित वेताल ( व्यन्तर भूतप्रतादि) भी जितना दुःख नहीं देते उससे अधिक दुःख भावशल्य देते हैं, क्योंकि भावशल्य ही सभी दुःखों का मूल है। आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिट्ठ बायरं व सुहुमं वा । छन्नं सद्दालुयं, बहुजण अव्वत्ततस्सेवी ।। 371 ।। आकम्पयिता अनुमानयिता, यत् दिष्टं वादरं वा सूक्ष्मं वा । छन्नं शब्दाकुलं, बहुजनाव्यक्तंतत्-सेवी ।। 371 ।। गुरू मुझे अल्प प्रायश्चित्त देगें, ऐसा सोचकर जो गुरू की सेवा भक्ति करता है वह आवर्ज्या लोचन दोष है । इसी प्रकार यदि साधक बड़े अपराध की आलोचना करता है और सूक्ष्म अपराध की आलोचना नहीं करता है यह प्रच्छन्न आलोचना है। लज्जादि कारण से जब बहुत लोग आलोचना कर रहें हो तब अव्यक्त रूप से अपनी बात कह देना यह अव्यक्तालोचना दोष है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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