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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 139 षट्त्रिंशत्गुणसमन्वागतेन तेनापि अवश्यं कर्तव्या। परसाक्षिका विशोधि, सुष्ठु अपि व्यवहारकुशलेन।। 366 ।। पांच प्रकार के प्रायश्चित्त व्यवहार के विशिष्ट ज्ञाता तथा छत्तीस गुणों से सम्पन्न आचार्य को भी दूसरे आचार्य आदि की साक्षी में आलोचना चारित्र की विशुद्धि हेतु करनी चाहिये। फिर सामान्य आराधक के लिए क्या कहना? अर्थात् उसे तो अवश्य ही आलोचना करनी चाहिये। जह सुकुसलो वि विज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो वाहिं। _एवं जाणंतस्स वि, सल्लुद्धरणं परसगासे ।। 367 || यथा सुकुशलः वैद्यः, अन्यस्य कथयति आत्मनः व्याधिं । एवं जानतः अपि, शल्योद्धरणं परसकाशे।। 367 || जिस प्रकार चिकित्सा में प्रवीण वैद्य भी अपना रोग दूसरे को बताकर चिकित्सा करवाता है, उसी प्रकार चारित्र की शुद्धि के ज्ञाता आचार्य को भी दूसरे आचार्य आदि के पास जाकर अपने शल्य का उद्धरण करवाना चाहिये अर्थात् अपने अपराध की शुद्धि करवानी चाहिये। __ अप्पं पि भावसल्लं, अणुद्धियं रायवणियतणएहिं।। जायं कड्डयविवागं, किं पुण बहुयाइं पावाई ?|| 368 ।। अल्पमपि भावशल्यं, अनु तं राजवणिक-तनयाभ्यां। जातं कटुकविपाकं, किं पुनः वहूनि पापानि।। 368 ।। राजपुत्र आर्द्रकुमार एवं वणिकपुत्र, इलाचीकुमार द्वारा अल्प मात्रा वाला भाव शल्य अर्थात् छोटा सा अपराध गुरू के सन्मुख निवेदन न करने के कारण उन्हें क्रमशः जीवघात तथा मृषावाद के कटुपरिणाम रूप दारूण दुःख प्राप्त हुआ, तो यदि बड़े अपराधों की आलोचना न करने पर कितना कटु परिणाम भुगतना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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