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________________ उपदेश पुष्पमाला / 133 तो सोविज्ज गुरुं चिय, मुक्खत्थी मुक्खकारणं पढमं । आलोएज्ज सुसम्मं, पमायखलियं च तस्संऽतो ।। 350 ।। ततः सेवेत गुरूमेव, मोक्षार्थी मोक्षकारणम् प्रथमं । आलोचयेत् सम्यक्, प्रमादस्खलितं च तस्यान्तिके ।। 350 || मोक्षार्थी शिष्य गुरू की सेवा करें, क्योंकि गुरू की सेवा ही मोक्ष का प्रमुख कारण है। प्रमादवश ज्ञानादि में स्खलना हुई हो, उसके लिये सम्यक् प्रकार से गुरु के सान्निध्य में आलोचना करें, अन्यथा गुरू सेवा निष्फल हो जाती है । 6. आलोचना द्वारम् कस्सालोयण ? आलो-यओ य आलोइयव्वयं चेव । आलोयणविहिमुवरिं, तदोसगुणे य वुच्छामि ।। 351 ।। कस्यालोचना ? आलोचकः च आलोचितव्यं चैव । आलोचनविधिमुपरि तद् दोष- गुणौ च वक्ष्यामि ।। 351 || किस गुरू के समक्ष आलोचना करें ? आलोचक शिष्य कैसा हो ? कौन-कौन से कार्य आलोचना योग्य हैं, आलोचना विधि क्या है ? और उसके दोष और गुण क्या है आगे इसकी चर्चा करेंगे। आयावरमाहाख, ववहारोऽवीलए पकुव्वे य । अपरिस्सावी निज्जव, अवायदंसी गुरू भणिओ ।1 352 ।। आचारवान् आहारवान् व्यवहारवान् अपव्रीड़कः प्रकुर्वकः च । अपरिश्रावी निर्यापकः, अपाय दर्शी गुरूः भणितः ।। 352 ।। आठ स्थानों से सम्पन्न अणगार आलोचना देने योग्य होता है । 1. आचारवान् - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य इन पांच आचारों से युक्त । 2. आधारवान् - आलोचना लेने वाले के द्वारा आलोच्यमान् समस्त अतिचारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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