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134 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
को जानने वाला हो ।
3. व्यवहारवान् - आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत इन पांच व्यवहारों का ज्ञाता हो ।
4. अपव्रीडक - आलोचना करने वाले में, वह लाज से मुक्त होकर सम्यक् आलोचना कर सके वैसा, साहस उत्पन्न कराने वाला हो ।
5. प्रकुर्वक - आलोचना करने पर विशुद्धि कराने वाला हो ।
6. अपरिश्रावी - आलोचना करने वाले के आलोचित दोषों को दूसरे के सामने प्रकट न करने वाला हो ।
7. निर्यापक- बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके ऐसा सहयोग देने वाला हो । 8. अपायदर्शी - प्रायश्चित्त भंग से तथा सम्यक् आलोचना न करने से उत्पन्न दोषों को बताने वाला हो ।
आगमसुयआणा - धारणा य जीयं च होइ ववहारो । केवलमणोहिचउदस-दसनवपुव्वाइं पढमोत्थ ।। 353 || आगम - श्रुत - आज्ञा - धारणा च जीतं च भवति व्यवहारः । केवलमनोऽवधि चतुर्दश - दशनव पूर्वाणि प्रथमोऽत्र (उच्यते ) ।। 353 ।। आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ये पाँच प्रकार का प्रायश्चित्त विधान व्यवहार कहलाता है। इसमें आगम व्यवहार के अन्तर्गत क्रमशः केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी तथा अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वधारी, दश पूर्वधारी और नव पूर्वधारी से आलोचना ग्रहण करनी चाहिये ।
कहेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो वि गूहइ ।
न तस्स दिंति च्छित्तं बिंति अन्नत्थ सोहय ।। 354 ।। न संभरइ जो दोसे, सब्भावा न य मायओ । पच्चक्खी साहइ ते उ, माइणो न उ साहई ।। 355 ।। कथय सर्व यः उक्तः, ज्ञातमानः अपि निगूहयति । न तस्य ददति प्रायाश्चित्तं बुवन्ति अन्यत्र शोधय ।। 354 ।।
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