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________________ 132 / साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री सर्व प्रथम शिष्य के प्रति कहे गये गुरू के वचन अग्नि के समान दाहक (कटु) लगते हैं। परन्तु परिणाम में ये वचन मृणाल-दल की तरह शीतल होते हैं। तह सेवंति सउन्ना, गुरुकुलवासं जहा गुरूणं पि। नित्थारकारणं चिय, पंथगसाहुल जायंति।। 347 ।। तथा सेवन्ते सपुण्याः, गुरूकुलवासं यथा गुरूणां अपि। निस्तारकरणं चैव, पंथकसाधुवत् जायन्ते ।। 347 || भाग्यवान् शिष्य ही गुरूकुल में निवास करते हैं तथा ऐसे शिष्य कभी-कभी अमार्ग सेवी गुरू के लिये भी सन्मार्ग में आने का कारण बन जाते हैं। जैसे- पन्थक साधु। ... सिरिगोयमाइणी गण-हरा वि नीसेसअइसयसमग्गा। तब्भवसिद्धीया वि हु, गुरुकुलवासं चिय पवन्ना।। 348 ।। श्रीगौतमादयः गणधराऽपि, निःशेषातिशयसमग्राः। तद्भवसिद्धिकाअपि खलु, गुरू-कुलवासं एव प्रपन्नाः ।। 34811 सम्पूर्ण अतिशयों से युक्त तथा निश्चित ही उसी भव में सिद्धि को प्राप्त करने वाले गौतम आदि गणधरों ने भी गुरूकुल में ही वास किया था। उज्झियगुरुकुलवासो, एक्को सेवइ अकज्जमविसंको। तो कूलवालओ इव, भट्ठवओ भमइ भवगहणे।। 349 ।। उज्झित-गुरूकुल-वासः, एकाकी सेवते अकार्यमविशङकः । ततः कूलवालकः इव, भ्रष्टव्रतः भ्रमति भवगहने।। 349 ।। गुरूकुलवास का त्याग करने पर शिष्य एकाकी होकर अकरणीय कार्य भी निर्भीक होकर करने लग जाता है, जिससे पथ भ्रष्ट होकर कूलबालक के समान भव भ्रमण के गहन में फँस जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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