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________________ उपदेश पुष्पमाला/ 131 नेच्छति च सारणादि सार्यमाणो च कुप्यति सः पापः । उपदेशं अपि न अर्हति, दूरे शिष्यत्वं तस्य।। 343 ।। जो गुरू के द्वारा की जाने वाली सारणादि नहीं चाहता है तथा गुरू द्वारा सारणा दिये जाने पर भी गुरू के प्रति कुपित होता है तो वह पापवान् कहा गया है। ऐसा शिष्य तो दूर से भी गुरू के द्वारा उपदेश देने के योग्य नहीं है। छंदेण गओ छंदेण, आगओ चिट्ठिओ य छंदेण। छंदे अवट्टमाणो, सीसो छंदेण मुत्तव्यो।। 344|| छन्देन गतः छन्देन आगतः स्थितश्च छन्देन। छन्द अवर्तमानः, शिष्यः छन्देन मोक्तव्यः ।। 344|| अपनी इच्छा से चला गया, अपनी इच्छा से आ गया, अपनी इच्छा से बैठ गया अर्थात् अपनी इच्छा से चलने वाला शिष्य गुरू के द्वारा त्यागने योग्य है। नाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित्ते य। धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासं न मुंचंति।। 345 ।। ज्ञानस्य भवति भागी, स्थिरतरकः दर्शने चारित्रे च। धन्याः यावत्कथया, गुरूकुल वासं न मुंचति।। 345 ।। दर्शन और चारित्र में स्थिर बुद्धि शिष्य ज्ञान का भागी (भाजन) बनता है। ऐसा भाग्यशाली सुशिष्य जीवन पर्यन्त गुरू-कुलवास का त्याग नहीं करता पढम चिय गुरुवयणं, मुम्मुरजलणोव्व दहइ भन्नतं। परिणामे पुण तं चिय, मुणालदलसीयलं होइ।। 346 ।। प्रथमेव गुरूवचनं, मुर्मुर ज्वलनं इव दह्यते भव्यमानं। परिणामे पुनः तदेव, मृणालदलशीतलं भवति।। 346 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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