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126/ साध्वी श्री सम्यग्दर्शना श्री
देश कुलजातिरूपी, संहनन - घृतियुतः अनाशंसी । अविकत्थनः अमायि, स्थिरः परिपारिः गृहीत - वाक्यः ।। 326 || जितपरिषहः जितनिद्रः, मध्यस्थः देशकाल भावज्ञः । आसन्न लब्धप्रतिभः नानाविधदेशभाषाज्ञः ।। 327 ।। पंचविधआचारे, युक्तः सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः । आहरणहेतु- उपनय - नयनिपुणः ग्राहणाकुशलः ।। 328 ।। स्व समय परसमयवेत्ता, गम्भीरः दीप्तिमान् शिव सोमः ।
गुणशतकलितः एषः प्रवचनोपदेशक श्चगुरूः ।। 329 ।। देश कुल (पितृपक्ष) एवं जाति (मातृपक्ष) से जो शुद्ध है, साथ ही रूपवान विशिष्ट संघटना युक्त, धृति (संयमादि) युक्त, विकथारहित, माया - रहित अविस्मृत सूत्रार्थ, आदेय वचन, परिषहों को जीतने वाला, निद्रा को जीतने वाला, राग-द्वेष से रहित, देशज्ञ, कालज्ञ, भावज्ञ, आसन्न लब्ध प्रतिभावान से युक्त, देशों की भाषा का ज्ञाता, पंचाचार से युक्त, सूत्र अर्थ को जानने वाला, दृष्टान्त, हेतु, उपनय एवं नयज्ञान में निपुण, प्रतिपादन में कुशल, स्वसिद्धान्त एवं पर सिद्धान्त का ज्ञाता, गम्भीर, दीप्तिमान, कल्याणकारी, सौम्य प्रकृतिवाला, शतगुण सम्पन्न आदि छत्तीस गुणों से युक्त प्रवचन एवं उपदेश प्रदान करने में जो कुशल है वही गुरू है ।
अट्ठविहा गणिसंपय, आयाराई चउविहिक्केक्का । चउहा विणयपवित्ती, छत्तीसगुणा इमे गुरुणो ।। 330 ।। अष्टविद्या गणिसंपत्, आचार्यादि चतुर्विधा एकैका । चतुर्धा विनय पवित्री, षट्त्रिंशत् गुणाः इमे गुरोः ।। 330 ।। आचार्य की आठ सम्पदाओं में से प्रत्येक के चार-चार प्रकार ( 8x4=32 ) एवं चार प्रकार की विनय प्रवृत्ति मिलकर गुरू के छत्तीस गुण बताये गये हैं।
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