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________________ कालाइ दोसवसओ, एत्तो एक्काइगुणविहीणो वि । होइ गुरु गीयत्थो, उज्जुत्ता सारणाईसु ।। 331 । । कालादि दोषवशतः, इतः एकादिगुण - विहीनोऽपि । उपदेश पुष्पमाला / 127 भवति गुरुः गीतार्थः उद्युक्त सारणादिषु ।। 331 ।। कालादि दोष के कारण यदि इन छत्तीस गुणों में से एक दो अथवा तीन गुण कम हो तो भी वे गीतार्थ मुनि गुरु कहलाते हैं । फिर भी गीतार्थ गुरू में भी विशेष रूप से सारणा - वारणा ये दो गुण अवश्य होने चाहिये । जीहाए विलिहितो, न भद्दओ जति सारणा नत्थि । दंडेण वि ताडतो, भद्दओ सारणा जत्थ ।। 332 ।। जिव्हया विलीढयन्, न भद्रकः यत्र सारणा नास्ति । दण्डेनापि ताड़यन्, भद्रका सारणा यत्र ।। 332 ।। अत्यन्त वात्सल्य से युक्त गुरू भी यदि शिष्य को जिह्वा से चाटता है अर्थात् उसे अति स्नेह करता, किन्तु उनकी सारणा वारणा नहीं करता है तो वह गुरू अभद्र कहलाता है तथा जो गुरु डंडे से प्रहार करता है फिर भी उसकी सारणा - वारणा करता है तो वह भद्र कहलाता है । जह सीसइं निकितइ, कोई सरणागयाण जंतूणं । तह गच्छमसारंतो, गुरु वि सुत्तो जओ भणियं ।। 333 ।। यथा शिरांसि निकृन्तति, काचित् शरणागतानां जन्तूनाम् । तथा गच्छम् असारयन् गुरुः अपि सूत्रे यथा भणितम् ।। 333 । । जैसे कोई पापकर्मा व्यक्ति अपने शरण में आये हुए प्राणियों का भी शिरच्छेद कर देता है उसी प्रकार यदि कोई गुरू भव-भीति के कारण शरण में आये हुये शिष्यों की सारणा नहीं करता है तो वह उनके शिरच्छेद के समान पाप कर्म करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002507
Book TitleUpdesh Pushpamala
Original Sutra AuthorHemchandracharya
Author
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, P000, & P050
File Size7 MB
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